Saturday, March 9, 2019

अर्पण कुमार की कविताएँ


अर्पण कुमार की कविताएँ :



दूसरे परिवारों में अपना बनकर



मेरे अंदर

जाने कितने संसार

रंग-बिरंगे

रल-मल करते हैं

कितने परिवारों की

कहानियाँ बसी हैं

मेरे ज़ेहन में

ठीक मेरे

अपने परिवार की तरह

इस रची-बसी दुनिया मॆं

मेरी संबंधोन्मुख भावना

उमड़ती-घुमड़ती रहती है

और मेरा लेखक

इन ठोस, घरेलू

जीते-जागते ताने-बानों को

सुलझाता रहता है जब-तब

अपने रचाव की उदारता में

दुनियावी व्यावहारिकता के

कसाव से युक्त

स्व-कवच से निकल बाहर



इन विविधवर्णी परिवारों मॆं

होकर शामिल

घुसपैठिए तो कभी

किसी निजी सदस्य की तरह

पाया है

बहुत कुछ मैंने



इनके भरपूर प्रेम और

खुले विश्वासों के

निरंतर संयुक्त देय का

कर्ज़ चुकाना

खैर, मेरे बस का क्या है

हाँ, कुछ शब्द

बाहर आ जाते हैं

मेरी तरंगित, उत्फुल

चेतना से उठकर

जिनके स्वर को ये

अपना बनाकर

वापस भेजते हैं

मुझ तक

द्विगुणित गुंजायमान कर उन्हें



इस आवाजाही में

आ जाते हैं अपने आप

कुछ रंग कुछ राग 

कविता मैं कहाँ रचता हूँ ! 

..............



बहनापा



बाल्टी कहती है

रस्सी से

डूबकर गहरे कुएँ में

हर बार

बाहर निकलती हूँ

तुम्हारे सहारे

जुड़ी रहकर तुमसे,

तुम्हारा बंधन ही

आख़िर मेरा बचाव है



अपनी वेणी के

आलिंगन-पाश में भरकर

बड़े ही प्यार से

रस्सी जवाब देती है

धीरे से

बाल्टी को

गहराई, कालिमा

अपशकुन, फिसलन

हर तरह के संशय, जोखिम

को चीरती साहसपूर्वक

तुम उतरती हो

किसी कुएँ के

सोते, सघन जल की

अलसायी, गहरायी

तंद्रा को

भंग करने

उसकी सतह पर

छपाक से

हलचल उठाती भरपूर

अपने पदाघात से

और डूबकर स्वयं

सर्वप्रथम

तुम लाती हो

अपने साथ भरकर

ताज़ा, मीठा जल

किसी की तपती, विनीत

अँजुली के निमित्त



तुम्हारे साहस को

मैं सिर्फ खींचती हूँ



दोनों ही अनभिज्ञ हैं

कदाचित

एक-दूसरे के प्रति

अपने बहनापे से

...............





अँगीठी बना चेहरा



दरवाजे के आगे

कुर्सी पर्र बैठा

खुले, चमकते, आकाश को निहारता

फैलाए पैर, निश्चिंतता से

पीता तेज धूप को

जी भर

आँखें बंद किए

तुम्हें सोच रहा हूँ



..........................



और तुम आ गई हो

दुनिया की सुध-बुध भुलाती

मेरी चेतना में

मेरी पेशानी पर

दपदपाते, चमकते बूँदों की शक्ल में

जैसे आ जाती है

कोयले में सूरज की लाली

या फिर अँगीठी की गोद में

उग आते हैं

नन्हें-नन्हें कई सूरज चमकदार

लह-लह करते कोयलों के



तुम तपा रही हो

मेरे चेहरे को

और मेरा चेहरा

अँगीठी बन गया है

जिस पर तुम

रोटी सेंक रही हो

मेरे लिए ही,

तुम्हारे सधे हाथों की

लकदक करती उँगलियाँ 

जल जाती हैं

झन्न से

छुआती हैं जब

गर्म किसी कोयले से

और झटक लेती हो तुम

तब अपना हाथ

तुर्शी में एकदम से

मगर बैठे हुए

जस का तस

भूख के पास

स्वाद की दुनिया रचती



बैठकर मेरी पेशानी पर

चुहचुहा रही हो तुम

बूँद-बूँद में ढलकर

और मैंने

ढीला छोड़ दिया है

अपने अंग-अंग को



और तुम

उतर रही हो

आहिस्ता-आहिस्ता

पोर-पोर में

और मैं

उठना नहीं चाह रहा हूँ

कुर्सी से

जो प्रतीत हो रही है

अब तुम्हारी गोद

पृथ्वी का

सबसे अधिक सुरक्षित

सबसे अधिक गरम

कोना, मेरे लिए ।

......................................................



सुःख-दुःख तुमसे थे

    

तुम मिलती थी रोज

और मैं लिखता था

कुछ-न-कुछ

तुम पर

मेरी उम्र के

वे सर्वाधिक सुखद हिस्से थे



तुम अनुपस्थित रही

लंबे अरसे तक

दिन, हफ्ते, महीने, बरस......

और मैं लिखता रहा

कुछ-न-कुछ

तुम पर

कुछ ज़्यादा ही

मेरी ज़िंदगी की वे

सर्वाधिक अँधेरी कतरनें रहीं



तुम थी, तब कविता थी

तुम नहीं थी, तब कविता थी

सुःख था, तब कविता थी

दुःख था, तब कविता थी

सुःख-दुःख जो तुमसे थे

कविता

जो तुम पर थी।

................

Wednesday, July 25, 2018

हमारे शतदल के ग्यारहवें कवि हैं श्री अर्पण कुमार जी। 
इन्होने शतदल को अपनी उम्दा कविताओं से नवाज़ा है। इनकी सबसे बेहतरीन कविता अँधेरा, इंसान की दिन-ब-दिन बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर गहरा आक्षेप करती है।
महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है। बुरा है उसका स्वार्थ से गठबंधन। हम आगे बढ़ने के चाह में सही और गलत का फर्क ही भूल गए। और हमने चुन ली अपने ही विनाश की राह।
और गड़बड़ा दिया प्रकृति के संतुलन को। पढ़िये इनकी 'अँधेरा' कविता की ये शानदार
लाईनें....

"प्रकृति की विरासत से तुम्हे
दिन और रात बराबर मिले थे
सबको बराबर मिला था, प्रकाश और अन्धकार
दुनिया तब एक दिखती थी
मगर जब तुमने ढूंढें रौशनी के विकल्प
उसके कतरों में बंट गयी दुनिया
जिसके एक बड़े हिस्से में चला आया अन्धकार
जी कहीं अधिक अप्राकृतिक अन्यायपूर्ण
और भयावह है।
प्रकृति की तुला पर तुम सबका वज़न एक था
मगर उसकी डंडी जब तुमने
थामी
मालिक बना तो कोई नौकर
शोषित बना तो कोई शोषित
पूँजी पति बना तो कोई सर्वहारा"
सही कहा अर्पण जी आपने। हमने
अपनी महत्वाकांक्षाओं की खातिर प्रकृति
का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया। तभी तो प्रकृति हमसे
शुब्ध है। जिसकी वजह से हमें रोज़ के भूकम्पों का
सामना करना पड़ रहा है।
इनकी इसी कविता का ये वाला हिस्सा मुझे
सबसे अच्छा लगा , आप भी पढ़िये-
" तुमने मनुष्यों की मंडियां लगाई
गुलामों की खरीद फ़रोख्त की
उन्हें पशुओं के पैरों में बांधकर
दौड़ प्रतियोगिता का मज़ा लिया
अपने विरोधी स्वरों को कतारबद्ध कर, निस्संग भाव से
'कांसनट्रेशन कैंप' के हवाले किया।
तो कभी उनके शहरों पर एटम बम गिराकर
उन्हें पल भर की रौशनी में ऐसा नहाया कि
आगे आने वाली उनकी कई नस्लें
रौशनी के भय से अपनी आँखे ना खोल
सकी।"
.

..... याद आया आपको वो दिल दहला देने वाला मंज़र, वो अमेरिका का  हिरोशिमा-नागासाकी पर अणुबम का हमला। उसके बाद तो जाने ऐसे कितने नागासाकी उजाड़े गए होंगे। एक आम इंसान कभी युद्ध नहीं चाहता। मगर युद्ध होता रहा । एक बेक़सूर आम आदमी को हमेशा हाशिये पर रखा जाता रहा। उससे वो कराया गया जो उसने कभी
नहीं चाहा। कभी डरा धमका कर कभी ललचा कर। हाशिया …………..अर्पण जी की एक और शानदार कविता.......

"मैं बतला सकता हूँ कहाँ क्या लिखते हुए वह रुका था
हिचका था
और जो कहने के लिए बैठा था उसे छोड़कर
मजबूरी में और ज़्यादातर स्वभाववश,
या फिर आकर प्रलोभन में तो कभी होकर भयाक्रांत
किसी सत्ताधीश से
या गिरफ्तार हो किसी मठ के शक्ति केंद्र के आकर्षण में
जाने क्या क्या अनाप शनाप लिखता रहा था "

आह कितनी आसानी से भर दी आपने अपनी बेचैनियां शब्दों में। ये बेचैन से शब्द जाने कहाँ कहाँ बिखर कर उथल पुथल मचाएंगे। और शायद यही उथल पुथल कारण बन जाए बदलाव का आपको पढ़कर मुझे दुष्यंत कुमार जी का वो शेर याद आ गया
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम
तू ना समझेगा सियासत , तू अभी इंसान है। …………।

इस हाशिया कविता का एक और अंतरा सुनिए। इसके माध्यम से अर्पण जी ने हाशिये की महत्ता बतायी है। या यूँ कहें एक आम आदमी की ताक़त की-
"लिखा हुआ गलत हो सकता है
बदला जा सकता है
कोई अमिट आलेख वक़्त के हाथों
कुछ भी अंतिम नहीं हैं
इस स्थापना की शुरुवात में आप मुझे ही
पाएंगे
हरदम हर जगह
तत्पर किसी बदलाव को जगह देने के लिए "

ऐसा लगा जैसे अर्पण जी ने कठोर दुनिया असली चेहरा दिखा डरा भी दिया और फिर दुलार के उम्मीदों को आँखों में रख भी दिया। सच बड़े प्यारे कवि हैं अर्पण जी। हम हमेशा कवि के दुःख को निजी और सामाजिक के आधार पर विभाजित करते हैं। यहाँ वो अपनी प्रेमिका माँ बेटी बहन  के लिए आंसू बहा रहा तो ये उसका निजी हुआ, और बाकी सामाजिक हुआ। लेकिन सच कहूँ तो मेरा ऐसा मानना है की दुःख का कारण भले कुछ भी रहा हो वो निजी ही हो जाता है। अपना ही जना ... सगा।  सच कहूँ तो ये ख्याल मुझे इनकी कविताओं को पढ़ कर ही आया।
 
ऐसा नहीं कि कवि का खाता एकदम नीरस या शुष्‍क विचारों से भरा है। सच तो यह है कि  बहुत भावुक हैं अर्पण जी। इनकी अगली कविता 'बुआ को सोचते हुए' एक बहुत ही आम सा ख्याल है। आज की ज़िन्दगी में जहां परिवार बंटते जा रहे है, वहीँ लोगों की सोच में भी संकीर्णता आती जा रही है। रिश्ते सिर्फ नाम मात्र के रह गए है। अपनत्व तभी तक कायम है जब तक रिश्ता घर की देहलीज़ के बाहर है। देहलीज़ के भीतर आते ही रिश्ता बोझ बन के रह जाता है। ये कविता अर्पण जी ने एक शिकायती लहजे में लिखी है। इसे शिकायत कहें या अपने अंतर्मन की कसमसाहट...  देखिये.... 

"जब उसका अपना बसा घर उजड़ा
उस अभागी, निरंकुश गृहस्थिन को
एक घर चाहिए था
और उसने 
तेरा घर चुना

माँ और हम सभी उकता जाते थे
जिससे 
कोख सूनी , एकाचारिणी की
वह स्वार्थ संकीर्णता
तुम्हारे हित में होती थी
अपना सबकुछ देकर भी वो तुम्हे रास ना आई 
पिता।
कभी कभी याद कर  लेना 
अपनी उस अवांछित लौह बहन को
जो तेरे लिए लड़ी
अंत अंत तक नि:स्वार्थ
दुत्कारे जाने के बावजूद।"

सच कितनी बेबस हो जाती है  एक मजलूम  बेसहारा औरत। सर से साया छिन जाने के बाद। अर्पण जी की हर कविता पाठक को खुद से जोड़ लेते है। हम कविता के साथ साथ बहते हैं। कविता ख़त्म हो जाती है मगर उसी दिशा में भटकते रहते हैं। इनकी अगली कविता "दिल्ली में जहानाबाद" एक बेमिसाल कविता है। जहानाबाद जिसका नाम सुनकर ही आत्मा काँप उठती है। उसी जहानाबाद के बारे में अर्पण जी कहते हैं की " मैं जहानाबाद के आतंक को लोगों के डाइनिंग टेबल से हटाना चाहता हूँ।"

मगर सच तो ये है अर्पण जी के लहू के इतने गहरे दाग आसानी से  नहीं छूटते। मुझे आपकी ये कविता आपका अपनी जन्मभूमि के लिये इतना प्यार बहुत अच्छा लगा। आपने सच कहा के किसी एक हिस्से में हुए हादसे से पूरा गाँव बुरा नहीं हो जाता। मगर फिर भी डरना एक इंसानी फितरत है,  और डर से उबरना भी। सच मुझे आपकी हर कविता बहुत अच्छी लगी। और सबसे अच्छा लगा आपका किसी माँ की तरह डराकर फिर से बहलाना , हिम्मत दिलाना उम्मीदे देना। या जैसे किसी गुरु की तरह , कबीर दास जी कहते हैना 
गुरु कुम्‍हार सिष कुम्‍भ है, गढ़ि गढ़ि काढे खोट
भीतर आप सहाय दे, तब बाहर दे चोट।  

(इस दोहे को लिखते ही मुझे माया मृग सर जी भी याद आगये ,
आज के कबीर हैं माया मृग जी। )

अर्पण जी आपकी कविताओं में बहुत अपनत्व है। आप यूँही लिखते रहे। आपको मेरी बहुत सारी शुभकामनाएं।

निवेद...

Wednesday, October 12, 2016

कविता

पिता के कंधे से लगकर
अर्पण कुमार

एक

पिता
अकेले मेरे नहीं हैं
मगर जब भी
सर रखती हूँ
उनके कंधे पर
वे मेरे होते हैं
पूरे के पूरे

मेरी बाकी चार बहनें भी
यही कहती हैं मुझसे

सोचती हूँ
पिता एक हैं
फिर पाँच
कैसे बन जाते हैं!
....

दो

यौवन की
केंचुली उतर आती है
मेरा बचपन
मेरे सामने होता है

पिता के कंधे से
जब लगना होता है
यही चमत्कार
बार बार होता है।
....

तीन

पिता हैं अगर पर्वत
तो उससे निकली
मैं एक नदी हूँ

गंगा,
हुगली कहलाए
या पद्मा
उसका स्रोत
हिमालय ही रहेगा।
.....

चार

हम पाँच बहनों को
बड़ा करते पिता
खर्च बेहिसाब हुए
मगर
हम नदियों को
अपने साथ कुछ ऐसे
लपेटे रहे
कि पंजाब हुए।
…..........
http://samvadiahindipatrika.blogspot.in/2011/04/blog-post.html?m=1
यह लिंक संवदिया पत्रिका के बारे में विवरण देता है। वहाँ मेरी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। उनकी संपादकीय टीम का आभार। 

Monday, July 25, 2016

भारमुक्त होने की अग्नि परीक्षा : अर्पण कुमार

                   भारमुक्त होने की अग्नि परीक्षा : अर्पण कुमार 

आजकल कलाई घड़ी पहननी छोड़ दी है। जेब से मोबाइल निकाल कर यथावश्यक समय देख लेता हूँ। कलाई  पर बँधी घड़ी भारी लगने लगी है। उंगलियों में पहने जानेवाली अंगूठियों को अलमारी के लॉकर का रास्ता दिखा दिया है। अपने पेट पर चढ़ गई और आगे की ओर लटक रही चर्बी को भी कहीं दूर भगा देना चाहता हूँ। समय कुसमय मन-मस्तिष्क पर पड़े रहनेवाले ऑफिस के बोझ से भी किनारा कर लेना चाहता हूँ। मान-सम्मान, पद-पैसा आदि के दबाव से मुक्त होकर ही ज़िंदगी के हल्केपन को महसूसा जा सकता है। आसान चीज़ों से छुटकारा ले लिया। जो चीज़ें हमें बाँधती हैं, अपना ग़ुलाम बनाती हैं और जिनकी गिरफ़्त से निकलना अक्सर दुष्कर होता है, असली अग्नि परीक्षा तो उन्हें विदा देने में है। क्या जाने पास होता हूँ कि फेल!

Friday, October 2, 2015

Arpan Kumar's poem on his own village, Gondpura

अपने गाँव पर लिखी यह कविता,मैं देश के सभी गाँवों को समर्पित करता हूँ।आज गांधी जयंती पर गांधी को कुछ इस अंदाज़ में ही याद किया।

गोन्दपुरा
अर्पण कुमार
...
आधा है,अधूरा है; प्यार का प्याला कोई टूटा है
कोई गुहाभिलेख ज्यों,गाँव अपना गोन्दपुरा है
बीता है बचपन यहाँ, तख़्त ही बिछावन जहाँ
जीवन का अग्रलेख,अपनी जान से भी प्यारा है

मैं कहीं रहूँ,कुछ भी करूँ,मेरी मिट्टी मुझे बुलाती है
सुख -दुःख के हर प्रसंग में याद उसी की आती है
पूस हो या कि अगहन, माघ हो या हो कि फाल्गुन
बीते हुए हर मास की खुशबू उससे होकर आती है

मेरा गाँव तो मेरा गौरव है,अद्भुत इसका सौरभ है
हर गलियों से परिचित,गाँव नहीं मेरा स्वानुभव है
मेरी दुर्वासना को भी जिसने जी भर दुलार किया
मेरे दुराचारों को रोकता, मुझसे हठी कोई हठ है

गूगल के नक़्शे पर इसे खोजता और खंगालता हूँ
बिंधे हुए किसी बटोही सा उस बिंदु पर थम जाता हूँ
पीपल, जोहड़, बगुले ; चैती, बरगद और बथान
कहो कब उस कुटुंब की पंचायत को भूल पाता हूँ

सफलता के नशे का कुहरा ऐसा छाया मुझपर
मैं खो गया कुंडलाकार किसी कौतुक में आकर
मगर हर धुंध को आखिर एक दिन ढल जाना है,
कानों के पास गाँव किलकारी करता है मचलकर
चूसे आमों की गुठलियां,गुठलियों में आए कोंपल
धान के खेतों में होती गिट-पिट और धमा-चौकड़

होली पर चुपके से किसी घर का कुछ भी रख आना
कंठ तक खाते जिनमें कहाँ दिखते आज वे ज्योनार
गाँव अपना गोन्दपुरा है , झरने का पानी गुनगुना है
गुपचुप आ पैठता है परदेश में बच्चा कोई हठीला है

आँखें मूँदता हूँ और भावातुर घर घर घूम आता हूँ
उर भीतर कब से उठता न जाने कैसा ये बखेड़ा है
आधा है,अधूरा है; प्यार का प्याला कोई टूटा है
कोई गुहाभिलेख ज्यों,गाँव अपना गोन्दपुरा है
......