अर्पण कुमार की कविताएँ :
दूसरे परिवारों में अपना बनकर
मेरे अंदर
जाने कितने संसार
रंग-बिरंगे
रल-मल करते हैं
कितने परिवारों की
कहानियाँ बसी हैं
मेरे ज़ेहन में
ठीक मेरे
अपने परिवार की तरह
इस रची-बसी दुनिया मॆं
मेरी संबंधोन्मुख भावना
उमड़ती-घुमड़ती रहती है
और मेरा लेखक
इन ठोस, घरेलू
जीते-जागते ताने-बानों को
सुलझाता रहता है जब-तब
अपने रचाव की उदारता में
दुनियावी व्यावहारिकता के
कसाव से युक्त
स्व-कवच से निकल बाहर
इन विविधवर्णी परिवारों मॆं
होकर शामिल
घुसपैठिए तो कभी
किसी निजी सदस्य की तरह
पाया है
बहुत कुछ मैंने
इनके भरपूर प्रेम और
खुले विश्वासों के
निरंतर संयुक्त देय का
कर्ज़ चुकाना
खैर, मेरे बस का क्या है
हाँ, कुछ शब्द
बाहर आ जाते हैं
मेरी तरंगित, उत्फुल
चेतना से उठकर
जिनके स्वर को ये
अपना बनाकर
वापस भेजते हैं
मुझ तक
द्विगुणित गुंजायमान कर उन्हें
इस आवाजाही में
आ जाते हैं अपने आप
कुछ रंग कुछ राग
कविता मैं कहाँ रचता हूँ !
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बहनापा
बाल्टी कहती है
रस्सी से
डूबकर गहरे कुएँ में
हर बार
बाहर निकलती हूँ
तुम्हारे सहारे
जुड़ी रहकर तुमसे,
तुम्हारा बंधन ही
आख़िर मेरा बचाव है
अपनी वेणी के
आलिंगन-पाश में भरकर
बड़े ही प्यार से
रस्सी जवाब देती है
धीरे से
बाल्टी को
गहराई, कालिमा
अपशकुन, फिसलन
हर तरह के संशय, जोखिम
को चीरती साहसपूर्वक
तुम उतरती हो
किसी कुएँ के
सोते, सघन जल की
अलसायी, गहरायी
तंद्रा को
भंग करने
उसकी सतह पर
छपाक से
हलचल उठाती भरपूर
अपने पदाघात से
और डूबकर स्वयं
सर्वप्रथम
तुम लाती हो
अपने साथ भरकर
ताज़ा, मीठा जल
किसी की तपती, विनीत
अँजुली के निमित्त
तुम्हारे साहस को
मैं सिर्फ खींचती हूँ
दोनों ही अनभिज्ञ हैं
कदाचित
एक-दूसरे के प्रति
अपने बहनापे से
...............
अँगीठी बना चेहरा
दरवाजे के आगे
कुर्सी पर्र बैठा
खुले,
चमकते, आकाश को निहारता
फैलाए पैर, निश्चिंतता से
पीता तेज धूप को
जी भर
आँखें बंद किए
तुम्हें सोच रहा हूँ
..........................
और तुम आ गई हो
दुनिया की सुध-बुध भुलाती
मेरी चेतना में
मेरी पेशानी पर
दपदपाते, चमकते बूँदों की शक्ल में
जैसे आ जाती है
कोयले में सूरज की लाली
या फिर अँगीठी की गोद में
उग आते हैं
नन्हें-नन्हें कई सूरज चमकदार
लह-लह करते कोयलों के
तुम तपा रही हो
मेरे चेहरे को
और मेरा चेहरा
अँगीठी बन गया है
जिस पर तुम
रोटी सेंक रही हो
मेरे लिए ही,
तुम्हारे सधे हाथों की
लकदक करती उँगलियाँ
जल जाती हैं
झन्न से
छुआती हैं जब
गर्म किसी कोयले से
और झटक लेती हो तुम
तब अपना हाथ
तुर्शी में एकदम से
मगर बैठे हुए
जस का तस
भूख के पास
स्वाद की दुनिया रचती
बैठकर मेरी पेशानी पर
चुहचुहा रही हो तुम
बूँद-बूँद में ढलकर
और मैंने
ढीला छोड़ दिया है
अपने अंग-अंग को
और तुम
उतर रही हो
आहिस्ता-आहिस्ता
पोर-पोर में
और मैं
उठना नहीं चाह रहा हूँ
कुर्सी से
जो प्रतीत हो रही है
अब तुम्हारी गोद
पृथ्वी का
सबसे अधिक सुरक्षित
सबसे अधिक गरम
कोना,
मेरे
लिए ।
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सुःख-दुःख तुमसे थे
तुम मिलती थी रोज
और मैं लिखता था
कुछ-न-कुछ
तुम पर
मेरी उम्र के
वे सर्वाधिक सुखद हिस्से थे
तुम अनुपस्थित रही
लंबे अरसे तक
दिन,
हफ्ते, महीने, बरस......
और मैं लिखता रहा
कुछ-न-कुछ
तुम पर
कुछ ज़्यादा ही
मेरी ज़िंदगी की वे
सर्वाधिक अँधेरी कतरनें रहीं
तुम थी, तब कविता थी
तुम नहीं थी, तब कविता थी
सुःख था, तब कविता थी
दुःख था, तब कविता थी
सुःख-दुःख जो तुमसे थे
कविता
जो तुम पर थी।
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