Sunday, November 16, 2014

आओ कविता पढ़ें : अशोक वाजपेयी


खरगोश अँधेरे में
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी।
पृथ्वी को ढोकर
धीरे--धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ।

अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू।

एक अधपके अमरूद की तरह
तोड़कर पृथ्वी को
हाथ में लिए है
मेरी बेटी।

अँधेरे और उजाले में
सदियों से
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी
अशोक वाजपेयी

 

Saturday, November 15, 2014

जीवन में कुछ भी कम नहीं होता है ....


 

थोड़ा नहीं है

अर्पण कुमार

 

किसी को थोड़ा जानना

किसी से थोड़ा बतियाना

थोड़ा नहीं है

ओस-स्नात दूब पर जैसे

तड़के सुबह

नंगे पाँव चलते

नन्हें सूरज की ओर 

थोड़ा लपकना

थोड़ा नहीं है

चेहरे पर   

दिवस भर की लाली को

एकबारगी मल लेने के लिए

 

किसी को थोड़ा चाहना

किसी से थोड़ा पाना

थोड़ा नहीं है 

एक छतरी में

साथ चलते जैसे

थोड़ा बचना,थोड़ा भीगना

थोड़ा नहीं है  

इतिहास के अधगीले उस खंड को

अपना बना लेने के लिए  

 

किसी को थोड़ा विचलित करना

किसी से थोड़े ताने सुनना  

थोड़ा नहीं है

अँधेरे की अतल गहराई में

जल की शांत तरंगों बीच

दो सीपों का जैसे

थोड़ा जागना, थोड़ा सोना

थोड़ा नहीं है

ज्वार उठा देने के लिए

अपनी साँसों से

समंदर में जब कभी

 

हो सके प्रस्फुटित

लावामें मक्का

उछाल भरी ध्वनि सहित

थोड़ी नहीं है

मुट्ठी भर रेत

इस चटख कायांतरण के लिए

जैसे किसी को थोड़ा बनाना

किसी से थोड़ा बनना

थोड़ा नहीं है   

Friday, October 24, 2014

पुस्तक समीक्षा


कविता संग्रह मैं सड़क हूं

कवि अर्पण कुमार

प्रकाशक बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य 75 रूपए

संभावनाशील कविताएं

उमेश चतुर्वेदी

कविताओं में चित्रों का संसार कोई नई बात नहीं है। लेकिन कविताओं को पढ़ते वक्त कूची के कमाल का आभास बहुत कम कविताओं के साथ ही हो पाता है। लेकिन अर्पण कुमार के ताजा संग्रह मैं सड़क हूं की कविताओं को पढ़ते हुए यह अनुभव बार-बार होता है। उनकी कविताओं में सड़क है, नदी है, स्त्री है, धूप है, कुआं है, चाकू है, खूंटी है..आम जिंदगी में रोजाना तकरीबन सबका इनसे राफ्ता पड़ता है..लेकिन इन चीजों से भी संवेदना इतनी गहरे तक जुड़ी हो सकती है...इसे एक संजीदा कवि ही देख सकता है...अर्पण इन्हें देखने और उनके जरिए दर्द और उदासी भरी संवेदनाओं को उकेरने में कामयाब हुए हैं। मैं सड़क हूं संग्रह में कुल तैंतीस कविताएं हैं। लेकिन उनमें बुढ़ापे में अकेली होती मां भी है, उनका अपना पटना शहर भी है..जिसे पीछे छोड़ आए हैं...जिनके साथ उनकी सुंदर और संजीदा स्मृतियां जुड़ी हैं..लेकिन अब लौटते वक्त उन्हें वह पुरानी उष्मा नहीं मिलती। शायद इसी के बाद उनकी कविता फूट पड़ती है आजकल मैं पटना जंक्शन पर नहीं उतर रहा हूं। अर्पण के इस संग्रह में पिता की कवि छवियां हैं। पेंशनयाफ्ता की जिंदगी जीते पिता हैं, आश्वस्त पिता हैं...असमय बूढ़े हो रहे पिता हैं...लेकिन सबसे मार्मिक कविता है साठवें बसंत में कालकवलित हो चुके पिता..यह कविता जिंदगी के एक अंतहीन गह्वर में छोड़ जाती है। अर्पण के इस संग्रह में एक कविता है मजिस्टर राम का शरणार्थी यह लंबी कविता आजादी के पैंसठ साल बाद भी गांवों की बदहाली और वहां पिछड़े रह गए कमजोर लोगों की शहरों में शरणार्थी की तरह जिंदगी गुजारने की मजबूरी को मार्मिक तरीके से उठाती है। इस कविता को पढ़ने के बाद जिंदगी और विकास के दावे तार-तार होते जाते हैं...इस संग्रह की एक कविता इन दिनों मौजूं बन पड़ी है...महानगर में एक कस्बाई लड़की। इस कविता की कुछ पंक्तियां बेहद संभावनाशील हैं-लक्ष्मण रेखा के पार /निकल पड़ी है वह/ अपने बड़े से जूड़े को कस/असीमित आकाश को/ अपने आंचल में समेटने..इस संग्रह की शीर्षक कविता है मैं सड़क हूंयह कविता नए बिंब खड़ी करती है और बिंबों के जरिए संभावना के नए वितान भी तैयार करती है-तुम मुझे बनाते हो/ और फिर रौंदते हो/ अपने पैरों के जूतों/ अपनी गाड़ियों के पहियों/ और अपनी तेज अंतहीन रफ्तार से..इन कविताओं को पढ़ने बाद लगता है कि अर्पण में काफी संभावनाएं हैं। कुल मिलाकर यह संग्रह बेहद पठनीय बन पड़ा है।

उमेश चतुर्वेदी

द्वारा जयप्रकाश, दूसरा तल, एफ-23 ए, निकट शिवमंदिर

कटवारिया सराय, नई दिल्ली-110016

Saturday, June 21, 2014

कबीर : हिंदी साहित्य के विद्रोही कवि


कबीर एक आदि विद्रोही कवि माने जाते हैं। कबीर एक तरफ विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते रहे हैं, तो दूसरी तरफ आम जन-मानस के बीच अपनी उलटबाँसियों,सहज जीवन-दर्शन और विद्रोही तेवर के लिए भी लोकप्रिय हैं।कबीर पढ़े-पढ़ाए जाते हैं, इसलिए आलोच्य हैं और कबीर के पदों को गाया जाता है, इसलिए वे गेय हैं। कबीर के व्यंग्य में अगर धार है तो उसकी शुरूआत उनके आत्म-व्यंग्य से होती है। उनके शब्दों में अगर एक निरपेक्ष साहस है तो इसलिए कि धर्म के भीतर की कृत्रिमता को उन्होंने हमेशा चुनौती दी और उसे नापसंद किया। फिर भी यह उनके शब्दों के भीतर पैठी सच्चाई ही थी कि उनके निधन के पश्चात हिंदूओं और मुस्लिमों ने उनपर अपने-अपने  तरीके से अधिकार जमाया। तभी तो आज, कबीर एक ऐसा नाम है जो हिंदू-मुस्लिम के बीच एक सेतु का काम कर रहा है और दोनों ही धर्मों में बच्चों का नामकरण इस नाम पर किया जाता रहा है। हिंदू-मुस्लिम की एकता पर बल देना न सिर्फ उस समय बिखरते और आपस में कटते-मिटते भारत के लिए आवश्यक था बल्कि वह तात्कालिक समाज के सांस्कृतिक और आर्थिक समायोजन के लिए भी ज़रूरी था। दोनों ही धर्मों के लोग एक-दूसरे के पूरक थे और विभिन्न घरेलू और कुटीर व्यवसायों में साझेपन की चली आ रही सुदीर्घ परंपरा को रक्षित करना ज़रूरी था। कबीर ने धर्म, जाति आदि के नाम पर समाज के भीतर की उस टूटन को महसूस किया था और आजीवन वे अपने तईं उस बिखराव को समेटने की कोशिश करते रहे। भाषाई स्तर पर भी उन्होंने उर्दू, फारसी,संस्कृत आदि सभी भाषाओं के शब्दों का यथा-अवसर प्रयोग किया। 'अपरम्पार का नाउँ अनन्त' कहनेवाले कबीर ब्रह्म के लिए राम, रहीम, अल्ला, सतनाम, गोबिंद, साहब, आप आदि कितने शब्दों को प्रयोग करते हैं। यह अनायास नहीं है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा था।

विदित है कि साधना योग पर आधारित कबीर की रचनाओं में सहज ही प्रेम और ज्ञान का एक अनूठा समन्वय देखने को मिलता है। ईश्वर के निर्गुण रूप का अपने अंतस में अनुभव करना, जहाँ उनका आध्यात्मिक उत्कर्ष था वहीं समाज में व्याप्त रूढ़ियों का विरोध करके समाज को समरसता और प्रगति की ओर ले जाना उनका सामाजिक प्रतिपाद्य था। कबीर की भक्ति में अध्यात्म और सामाजिकता का यह ताना-बाना जितना गझिन है उतना ही मानीखेज़ भी।इसका जितना युगीन महत्व था, उतना ही सार्वकालिक महत्व भी है। तुलसी जहाँ प्रबंधकीय फॉर्म के अनोखे सृजनकार हैं और अपने अद्वितीय और सुदीर्घ सांग-रूपक के लिए जाने जाते हैं वहीं कबीर मुक्त छंद के बेताज बादशाह हैं और अपनी बेलाग कहन के लिए जगत प्रसिद्ध हैं। यह अकारण नहीं है कि मध्यकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युग कहा जाता है। उसी स्वर्ण-युग के एक प्रमुख स्तंभ रहे कबीर को आधार बनाकर लिखी  गई इन कविताओं के बहाने यतींद्र न सिर्फ अपने भीतर के कबीर को पहचानते हैं बल्कि हम सब के भीतर छुपी कबीरियत  को भी एक वाणी प्रदान करते हैं और मध्यकाल के देय को वर्तमान प्रासंगिकता से संपृक्त करते हैं।  

यतींद्र संगीत में रुचि और उसकी जानकारी रखते हैं। संगीत का सुरुचिपूर्ण माहौल, रूपकत्व और शब्दावली का काफी सहजता से वे अपनी कविता में प्रयोग करते हैं। उनकी कविता की भाषा भी एक उपलब्धि के रूप में सामने आती है, जो समकालीन कविता से इतर अपना पाठ तैयार कर रही है। यतींद्र ने प्रस्तुत संग्रह को कबीर पर केंद्रित करके अपनी इन कविताओं से समकालीन हिंदी कविता-पटल पर एक तिर्यक रेखा खींची है और उसके बहाने समकालीन अंतर्विरोधों को बखूबी प्रस्तुत किया है। फिर चाहे वह मनुष्य के अंतस का उलझा हुआ सच हो या फिर उसके परिवेश की निरंतर बदलती और बदसूरत होती सच्चाई, समाज के बीच से खंडित और विलोपित होती सामाजिकता हो या फिर उपभोक्तावाद के किसी अंधे कुँए में गिरती उसकी अनंत भोग-लिप्सा, यतींद्र ने विभासमें हर तरह के आभास और अनुभव को वाणी प्रदान किया है। अपनी एक कविता में वे लिखते हैं :-

............

जवानी भी उतनी ही बची रही

जितना कि बचा रहा रिश्तों के बीच

प्रेम के लिए छूटा संकरा सा एक रास्ता

 

अब जबकि रीतने के दिन करीब हैं

और कुछ बचाने की ज़द्दोजहद सिफ़र

लगता है वह जुलाहा यूँ ही थोड़ा बदनाम हुआ

अपने कहन में बेवजह उलझकर

(कहन)

 

अशोक वाजपेयी ने इस संग्रह को प्राचीनों के प्रति कवि की कृतज्ञता के रूप में देखा है। अपनी संक्षिप्त टिप्पणी में वे कहते हैं: इन कविताओं का मर्म ऐसी ही सजल स्मृति और गहरी कृतज्ञता से उपजा है।उसमें उस धूमिल पड़ती निरंतरता को फिर सजीव और उजला करने की कोशिश है, जो हमें निरी या नितांत समसामयिकता से मुक्त कर समय के धारा-प्रवाह में अवस्थित करती है।...ये कविताएं हमें आश्वस्त करती हैं कि हम उस सच को, उसकी अनश्वर उज्ज्वलता को अभी भी अपनी भाषा में पुनरायत कर सकते हैं

 

निश्चय ही आलोच्य संग्रह की इन कविताओं में कबीर की स्मृतियों और उसके विस्तृत भावमय परिवेश को यतींद्र ने कुशलतापूर्वक हमारे बीच रखकर बीते समय के रेशों से मानों नया चादर बुन दिया है। वहाँ सिर्फ कबीर से जुड़े विभिन्न शब्दावलियों का इस्तेमाल मात्र नहीं किया गया है, बल्कि उनके प्रयोग से काल-विशेष की चेतना को उसके समग्र रंगों में देखने की कोशिश की गई है। चूँकि कबीर पर आज का कवि कुछ कह रहा है, अतः निश्चय ही कबीर के कहे में वह आज की समस्याओं और उलझनों के हल देखने की भी कोशिश कर रहा है। अपनी निम्न कविता में यतींद्र कितना सटीक फरमाते हैं:-

 

जीवन को घेरने के लिए

बनने वाले घरों की पहली ईंट

जिस भाषा के गारे से बनकर आती है,

उसकी असमाप्त व्याप्ति की गूँज में

जुलाहों के घर का पता मिलता है

(जुलाहों के घर का पता)

 
कबीर ने  भाषा को भाखा बहता नीरकहा था। अपने चुटीले अंदाज़ और घुमक्क्ड़ी भाषा में, एक सधे व्यंग्यकार के से वे कई चुभती बातें बड़ी आसानी से कह जाया करते थे। एकाधिक जगहों पर व्यंग्य और उलटबाँसी की यह मुखरता यतींद्र की कविताओं में भी देखने को मिलती है:-

 
जहाँ भटके वहीं राह पाई

जहाँ बोले नदिया वहीं गहराई

जहाँ डूबे वहीं उतराया

बाकी समय फोकट में गँवाया

(तुम जहाँ बैठे वहीं छाया)

 

समकालीन कविता के कई स्वर हैं और तदनुरूप कई तरह की भावाभिव्यक्तियाँ और मुहावरे भी। यतींद्र ने इस बीच क्रमश: अपना एक विशेष काव्य-मुहावरा रचा और विकसित किया है, जिसे निरंतर वे सघन और हृदयस्पर्शी करते चले जा रहे हैं। उनकी विषय-वस्तु का क्षितिज भी बड़ा होता चला जा रहा है। कविता चाहे कितनी भी आत्मिक और वैयक्तिक हो उसमें प्रतिरोध के स्वर अवश्य ही देखने को मिल जाते हैं। यहाँ भी अपने तरीके से इसकी बानगी देखने को मिल जाती है। भाषायी प्रभाव और  गझिन  संवेदनपरकता के बीच  कविता के ऐवन्यूपर चहलकदमी करना एक प्रीतिकारी अनुभव कहा जाएगा और पाठक भी इस संग्रह को पढ़ते हुए ऐसा अनुभव कर सकते हैं, ऐसी अपेक्षा करना अनुचित न होगा।

 

हिंदी साहित्य के अध्येता के अवचेतन में कबीर अपने-अपने तरीके से एक स्पेसबनाते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यतींद्र के यहाँ भी यह स्पेस अपने निजी रूप में अवस्थित है और उसी संघनित और संकेंद्रित स्पेस को युगीन मुहावरे में अभिव्यक्त करते हुए यतींद्र पूरी तैयारी के साथ इस संग्रह में दिखते हैं। इन कविताओं में कबीर की मार्का शब्दावली का न सिर्फ उसके पूरे संदर्भों के साथ प्रयोग किया गया है बल्कि विभिन्न दृश्य-श्रव्य माध्यमों के साथ कबीराना माहौल में कबीर को सुनते-गुनते आने की देशातीत और कालातीत संस्कृतियों की छटा के कई इंद्रधनुषी रंग भी हमें यहाँ सहज ही दिखने को मिलते हैं। इन कविताओं में आए कबीर के शब्दों से होते हुए पाठक सदियों पीछे मध्यकाल में चला जाता है और कबीर अपनी लकुटिया लिए आधुनिक युग में आ धमकते हैं। टाईम-मशीन के प्रभाव-सदृश यह आवाजाही भी इस संग्रह की एक विशॆषता कही जाएगी। उदाहरणतः दुःख पर लिखी इस कविता में आज का दुख समय की रस्सी को पकड़े जाने कितना पीछे चला जाता है और इसलिए अपनी निरंतरता में कितना मारक और मार्मिक हो उठता है: -

 

संशय की कई हाथ लंबी रस्सी

खींच ही नहीं पाती कुएं का सारा जल

 

भीतर गहराई में बैठी अथाह पीड़ा जैसे

आवाज़ के पनघट पर दब सी जाती है

 

और कुएं पर पनिहारिनों के उल्लास में

दुःख का मल्हार भी शामिल रहता है

(दुःख के कुएँ में)

यहाँ कबीर के पनघट पर यतींद्र की पनिहारिनें पानी भर रही हैं और दुख-सुख के बीच मध्यकाल और आधुनिक काल की आवाजाही हो रही है।

 
कबीर को जिन कला-माध्यमों में अभिव्यक्त किया जा रहा है, उन सभी के प्रति एक चौकस दृष्टि रखना और उन्हें कविता में अंकित करना एक श्रमसाध्य कार्य होने के साथ कला के दस्तावेजीकरण का एक गंभीर प्रयास भी है। यहाँ मुख्यतः राजस्थान के लोक-वाद्य रावणहत्था को बचाने की जद्दोजहद भी है और काशी, मगहर और अयोध्या के प्रति कवि की निजी दृष्टि और उसका अपना अवलोकन है। कबीर ने जहाँ जन्म लिया, कबीर की जहाँ मौत हुई, कबीर ने अपनी कविताओं में जिन शब्दों का प्रयोग किया, कबीर ने जिन काव्य-रूपकों और फॉर्म का इस्तेमाल किया, जीवन की उलझन को जिस तरह कबीर ने सुलझाया और सरल से दिखते प्रतीकों में जीवन के जिस गूढ़ार्थ को अभिव्यक्त किया, कबीर जिनके बीच आज भी जिंदा हैं और जिनकी जीवन-शैली के अभिन्न हिस्से हैं, यतींद्र ने अपनी इन कविताओं के माध्यम से एक अनूठी काव्य-यात्रा की है और कबीर से जुड़ी इन सभी पहलुओं को छुआ है।जैसा कि उनके रचनाकार का एक ट्रैक-रिकॉर्ड रहा है, कविताओं के माध्यम से वे साहित्य, संस्कृति, संगीत आदि कला के विभिन्न रूपों को एक साथ रखकर देखने-समझने की कोशिश करते हैं, जो प्रस्तुत संग्रह में भी उपलब्ध है। इस संग्रह के अंतिम खंड ख़ूब रंगी झकझोर.... में सभी गद्य कविताएँ हैं, जिनकी काव्यात्मकता प्रभावित करती है।विभास, अव्यक्त की डाल पर’, क्या तुम’, इकतारा’, हमन को होशियारी ,बाज़ार में खड़े होकर, बंदिश का एक छोटा टुकड़ा, दिगंबर जैसा विस्तार सरीखी कविताएँ संग्रह की उल्लेखनीय कविताएँ हैं।