Wednesday, October 12, 2016

कविता

पिता के कंधे से लगकर
अर्पण कुमार

एक

पिता
अकेले मेरे नहीं हैं
मगर जब भी
सर रखती हूँ
उनके कंधे पर
वे मेरे होते हैं
पूरे के पूरे

मेरी बाकी चार बहनें भी
यही कहती हैं मुझसे

सोचती हूँ
पिता एक हैं
फिर पाँच
कैसे बन जाते हैं!
....

दो

यौवन की
केंचुली उतर आती है
मेरा बचपन
मेरे सामने होता है

पिता के कंधे से
जब लगना होता है
यही चमत्कार
बार बार होता है।
....

तीन

पिता हैं अगर पर्वत
तो उससे निकली
मैं एक नदी हूँ

गंगा,
हुगली कहलाए
या पद्मा
उसका स्रोत
हिमालय ही रहेगा।
.....

चार

हम पाँच बहनों को
बड़ा करते पिता
खर्च बेहिसाब हुए
मगर
हम नदियों को
अपने साथ कुछ ऐसे
लपेटे रहे
कि पंजाब हुए।
…..........
http://samvadiahindipatrika.blogspot.in/2011/04/blog-post.html?m=1
यह लिंक संवदिया पत्रिका के बारे में विवरण देता है। वहाँ मेरी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। उनकी संपादकीय टीम का आभार। 

Monday, July 25, 2016

भारमुक्त होने की अग्नि परीक्षा : अर्पण कुमार

                   भारमुक्त होने की अग्नि परीक्षा : अर्पण कुमार 

आजकल कलाई घड़ी पहननी छोड़ दी है। जेब से मोबाइल निकाल कर यथावश्यक समय देख लेता हूँ। कलाई  पर बँधी घड़ी भारी लगने लगी है। उंगलियों में पहने जानेवाली अंगूठियों को अलमारी के लॉकर का रास्ता दिखा दिया है। अपने पेट पर चढ़ गई और आगे की ओर लटक रही चर्बी को भी कहीं दूर भगा देना चाहता हूँ। समय कुसमय मन-मस्तिष्क पर पड़े रहनेवाले ऑफिस के बोझ से भी किनारा कर लेना चाहता हूँ। मान-सम्मान, पद-पैसा आदि के दबाव से मुक्त होकर ही ज़िंदगी के हल्केपन को महसूसा जा सकता है। आसान चीज़ों से छुटकारा ले लिया। जो चीज़ें हमें बाँधती हैं, अपना ग़ुलाम बनाती हैं और जिनकी गिरफ़्त से निकलना अक्सर दुष्कर होता है, असली अग्नि परीक्षा तो उन्हें विदा देने में है। क्या जाने पास होता हूँ कि फेल!