Saturday, July 4, 2015

यात्रा डायरी/अर्पण कुमार


यात्रा डायरी/अर्पण कुमार

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14 जून, 2015  

अभी अभी ओमान के लिए विमान जयपुर हवाई अड्डे से रवाना हुआ है। जयपुर जैसे मंझोले शहरों में अंतरराष्ट्रीय उड़ान की सुविधा से कई लाभ हैं। व्यक्ति को दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों का रुख़ नहीं करना पड़ता। इन शहरों में रहनेवाले लोगों को अपने शहर के प्रति एक अतिरिक्त मोह भी आना शुरू होता है। 'लोकल इज ग्लोबल' का विज्ञापनी श्लोगन चरितार्थ होता है। बड़े शहरों पर यात्रियों और उनसे जुड़ी औपचारिकताओं का दबाव कुछ कम होता है, सो अलग। जिस गेट नं. तीन के सामने बोर्डिंग के लिए प्रतीक्षारत हूँ, इस बंद लंबी गैलरी में यात्री बच्चों सहित कुछ कबूतर भी मौज़ भर रहे हैं।बेशक, कुछ देर में ये बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ लेंगे। सोचता हूँ, ये परिंदे ही तो हमारे विमान-निर्माण की सोच के आदिम प्रेरणास्रोत हैं। मगर हवा में गतिमान विमान को इनसे बचने की कितनी ज़रुरत होती है! इनकी अनावश्यक उपस्थिति हमें खलने लगती है।यह कुछ वैसा ही है, जैसे कभी सहज आत्मीय रहे हमारे माता पिता, क्रमशः हमारे लिए अपनी चमक खोने लगते हैं। बुढ़ापे में सिर्फ चहरे की कान्ति और हड्डियों की ताकत ही नहीं जाती,परिवार में बच्चों के बड़े होने की आनुपातिक प्रक्रिया में उनके महत्व और अनुदेशों की स्वाभाविक एवं आधिकारिक चमक भी जाती रहती है। व्हील चेयर पर यात्रा करते शरीरों को ऐसे में पर्याप्त आदर एवं मान की ज़रुरत होती है।व्हील चेयर के पहिए तब ज़्यादा उत्साह में और तेजी से चलते हैं।

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विमान संख्या 6 ई 207

यह इंडिगो का विमान है।इसका टैग लाईन है _ India's coolest air line. तीन-तीन सीटों के दो खाने बने हुए हैं। कोई बिजनेस क्लास नहीं। यह भारत में विमान-यात्रा के लोकतांत्रिक होने की आरंभिक प्रक्रिया के संकेत हैं। एक दूसरे विमान का टैग लाईन ही है, विमान यात्रा, हरेक के लिए।

 

जयपुर से कोलकाता की यह दूरी दो घंटों की है।

 

कैप्टन समेत विभिन्न विमानकर्मियों के निवास स्थानों का परिचय दिया जाता है। वे कौन-कौन सी भाषाएँ बोलते हैं/ बोल सकते हैं, इसकी भी सूचना दी जाती है। इसे भारतीय भाषाओं के सम्मान के रूप में देखा जाना चाहिए।विमान परिचारिकाओं ने ज़रूरी सांकेतिक प्रदर्शन शुरू कर दिया है। विमान उड़ने को तैयार। मोबाइल को फ्लाइंग मोड पर रखने के निर्देश पहले ही दिए जा चुके हैं।

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रॉबर्ट होल्डन की पुस्तक 'हैप्पीनेस नाऊ' दिखी, खिड़की सीट पर बैठी सहयात्री(नवयौवना) के हाथों में।बीच में अपनी अकेली और अबतक कुंवारी अपनी बेटी से मिलने विशाखापट्टनम जा रहे बुजुर्गवार बैठे हैं, जो मूलतः कोलकाता से हैं और अबतक बासठ वसंत पार कर चुके हैं।एक जगह से सेवानिवृत्ति प्राप्त कर अब कहीं और नौकरी कर रहे हैं। थोड़े मोटे हैं और मेरे आगामी दिनों के संभावित हुलिए की झांकी प्रस्तुत करते हैं। उनसे बातचीत हो रही है।

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कोलकाता से भुवनेश्वर की यह यात्रा पुनः इंडिगो से

अनुमानित समय - 50 मिनट

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घरेलू उड़ानों में अमूमन लंबी और स्लिम इंडिगो के इस फ्लाइट में यात्रियों के लिए कुल 180 सीटें हैं। मगर इंडिगो ने अपनी सुविधा के लिए इसे कुल 30 संख्या तक सीमित रखा है। ऐ, बी,सी,डी,ई और ऍफ़ - हर संख्या को अंग्रेज़ी के इन चार वर्णों के साथ चिह्नित किया गया है। इससे 180 के छठवें भाग 30 तक की संख्या से आप 180 तक का वर्गीकरण आसानी से कर लेते हैं। कोई एक या सवा फ़ीट के आइल (पथ) के दोनों तरफ एक ही पंक्ति में ऐ से लेकर ऍफ़ तक की सीटें हैं। दाऐं और बाएं दोनों भागों में कुल तीन-तीन सीटें। मैं जब आइल के अपेक्षाकृत संकरे होने की बात कर रहा था, तो मेरे बगल में बैठे एक सहयात्री ने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा, 'तभी तो मैं खिड़की की सीट की जगह आइल से सटे इस सीट को वरीयता देता हूँ। विमान में तो हवाई नाश्ता हवा हवाई ही ठहरता है, मगर नथुनों में आती-जाती फीमेल परफ्यूम, यात्रा को रोमांटिक या कहें मादक बना देता है'। तभी विमान परिचारिकाओं का एक जोड़ा, चहरे पर मुस्कान लिए पीछे से आगे की ओर बढ़ गया। फ़िज़ां में खूशबू तैर गईं।अलग अलग प्रांतों / शहरों की ये स्वर्ग अप्सराएं (अगर स्वर्ग को आकाश में होना कुछ देर के लिए सचमुच में मान लिया जाए) अपने आधुनिक और दिवा रूप में निश्चय ही कई पुरुष यात्रियों के लिए आह भरने का सबब होती हैं। मगर इसके बरक्स जेट एयरवेज सहित कई विमानों में पुरुष परिचारकों का होना, बेशक किसी लैंगिक विमर्श का हिस्सा हो या न हो, मगर विमान परिचारण के इस अन्यथा महिला बहुमत वाले सेगमेंट में पुरुषों द्वारा की गई एक सेंध तो है ही। दूसरे, इस व्यवसाय को उसके टिपिकल लेडीज़ ग्लैमरस छवि से मुक्त करना भी एक कारण हो सकता है।सड़क पर झाडू लगाते, अस्पतालों में मरीजों के बिस्तर बदलते, होटलों में खाना बनाते सेफ और मेहमानों से ऑर्डर बुक करते पुरुष बैरे इसी क्रम में देखे जाने चाहिए।ऊपर जिस यात्री का उल्लेख किया गया, उन्होंने इस विषय पर भी अपनी विशेषज्ञ राय मेरे सामने रखी,' देखिए महोदय, आख़िर स्त्रियों का एक धड़ा ऐसा है,जो एयर होस्ट की मांग करता है या कहीं अवचेतन में उसे पसंद करता है'। हो सकता है,उनकी बातों में आंशिक सच्चाई हो, मगर अमूमन इनकी जगह मॉडलिंग,अभिनय और शरीर प्रदर्शन के दूसरे ऐसे पेशों में बेशक पुरुषों को एक हसरत की निगाह से उनके लेडिज फॉलोअर्स की ओर से देखा जाता है।मेल स्ट्रिपेज को भी आप महिला आकांक्षा के उसी बोल्ड विस्तार का हिस्सा मान सकते हैं, जिसे फिल्मों में सिक्स ऐप्स के रूप में भी प्रचारित किया गया, जिसे प्रदर्शित करने के मोह से तीनों खान बंधुओं में से कोइ नहीं बच सका। मगर पुरुषों की मानसिकता कुछ ऐसी सेवा पसंद है कि उन्हें इन सेवा उद्योगों में दत्तचित्त ऐसी महिलाएं आकर्षित करती हैं।कईयों को इनके प्रेम में पड़ते देखा गया है।

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फ्लाईंग मोड पर लिखते हुए :-

मेरे ठीक सामनेवाली सीट पर एक सज्जन, जो आधी बाजू की कमीज पहने हुए हैं, 'नफ़ा नुकसान' नामक अखबार पढ़ रहे हैं।जयपुर से निकलनेवाले इस अख़बार के बारे में यहीं जाना। जयपुर में रहते हुए कभी इस समाचार पत्र को नहीं देखा। कोफ़्त हुई कि एक ख़ास मानसिकता और दिनचर्या में रहते हुए आदमी किस तरह अपने आसपास की कई चीजों से अनवगत रह जाता है।ख़ैर, जयपुर वापस उतरकर इसके बारे में अन्य विवरण प्राप्त करूंगा। एक सहयात्री, 'राष्टदूत' समाचार पत्र पढ़ रहे हैं। यह भी जयपुर से प्रकाशित हो रहा है।

 प्रसंगशः ध्यान आया कि दिल्ली में जिस तरह एक ही मीडिया हाउस से अंग्रेज़ी/हिंदी में एक साथ कई समाचार पत्र और पत्रिकाएं निकलती हैं, उसी तर्ज़ पर यहाँ राजस्थान पत्रिका समूह, राजस्थान में राजस्थान पत्रिका और डेली न्यूज के नाम से दो समाचार पत्र प्रकाशित करता है। ये दोनों पत्र हिंदी में प्रकाशित हैं। यह हिंदी का अपना प्रांतीय विस्तार है। जिस दिल्ली सरकार की अपनी तीन राजकीय कामकाज की भाषाएँ हैं, वहाँ एक भी मीडिया समूह ऐसा नहीं है, जो एक साथ तीनों भाषाओं -हिंदी,पंजाबी और अंग्रेज़ी में अखबार निकालता हो।पंजाब केसरी समूह, हिन्दुस्तान टाइम्स समूह और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समूह -तीनों मेरी जानकारी में दो भाषाओं तक सीमित हैं।संभव है पंजाब केसरी, उर्दू में अखबार निकालता हो, मगर मुझे इस वक़्त ध्यान नहीं आ रहा।वैसे मेरे दिल्ली प्रवास के दिनों में सहारा समूह हिंदी और उर्दू में दैनिक और अंग्रेज़ी में एक साप्ताहिक अखबार निकाला करता था। आज की स्थिति अभी ज्ञात नहीं।दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण समूह का मुख्यतः हिंदी प्रदेशों में उनका आपस में दन्द्व युद्ध जारी है तो कभी प्रदेश विशेष के क्षत्रप समाचार पत्रों से भी उन्हें दो दो हाथ करने पड़ जाते हैं। क्षत्रप, सिर्फ राजनीतिक दलों में ही नहीं होते, मीडिया समूहों में भी होते हैं। यह देश की संसदीय राजनीति और संघात्मक ढाँचे के लिए सुखद है कि प्रांत विशेष तक सिमटी दलें अपना राष्ट्रीय विस्तार करे और दिल्ली की केंद्रीय सरकार तक में उसकी दखल हो।सत्ता का विकेंद्रीकरण, संविधान की आत्मा के अनुरूप है। यह कई अन्य घटकों सहित पंचायती राज और प्रादेशिक आकांक्षाओं के विस्तार से होता है। स्थानीय स्व शासन , इसी का एक सह -उत्पाद है।स्टार न्यूज का एबीपी न्यूज बनना, इस बदलते राजनीतिक /सत्ता विमर्श का मीडिया संस्करण है।

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मंदिरों की प्राचीनता और उसके स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध भुवनेश्वर में।

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'कल इस समय जयपुर में था और आज इस समय पुरी में। दुनिया कितनी छोटी हो गई है', मेरे दायें ड्राइविंग सीट पर कमान संभाले और आज दोपहर से ही हमारे साथ चालक की घोषित और गाईड की अघोषित भूमिका में रह रहे किशोर अपने मुँह से गुटका की एक भरी पीक, गाड़ी के गेट खोलकर बाहर फेंकता है और बिना मेरी ओर पलटे कहता है,'साईंस आगे बढ़ गया न सर!' मूलतः बहरामपुर का रहनेवाला किशोर सुबह आठ से रात आठ बजे तक टैक्सी चलाता है। महीने में आठ हजार की पगार पानेवाला किशोर भुवनेश्वर में लिगराज मंदिर के पीछे एक मोहल्ले में रहता है और किराए के तीन हज़ार देता है। दो बच्चे हैं और दोनों स्कूल जाते हैं। ओवरटाइम और टिप्स मिलाकर महीने में औसतन दो हज़ार की कमाई अलग से हो जाती है। सहनशील और सांवला किशोर तैंतालीस वर्षों का है और पर्याप्त व्यावहारिक है। मैंने पूछा, ' दिन भर में कितने गुटके खा लेते हो?'

किशोर कहता है,' अधिकतम दस रुपए तक के।लॉन्ग ड्राइव में ज़रुरत पड़ती है न सर। नहीं तो नींद आएगी। लोग इस तरह बात नहीं करते न सर!वे पीछे सीट पर बैठ लैपटॉप में या मोबाइल में बिजी रहते हैं न सर!'

आत्मकेंद्रित शहरी समाज पर अनजाने में और बिना किसी गिले शिकवे की गई उसकी टिप्पणी पर मैं निरुत्तर रह जाता हूँ।

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जयपुर से पुरी जाने के क्रम में कोलकाता विमान पत्तन पर घरेलू स्थानांतरण के दौरान। कोलकाता हवाई अड्डे पर।

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15 जून,  2015  

 

आज सुबह पुरी में नींद, बारिश की झमझम से खुली।प्रकृति-रानी की पायल की खनक, हमारी ईच्छाओं का ग़ुलाम नहीं होती और वह किसी दूसरे के निमित्त नहीं, आनंदातिरेक में स्वयं उनके लिए ही होती है।हाँ, हम अगर उसमें अपनी भावनाएँ जोड़ लें और उसे स्वयं के लिए प्रदर्शित होता मान लें, तो इसमें रानी साहिब को कोई आपत्ति नहीं ।मगर ज़रा रुकिए, उनका नृत्य कब थमेगा और वापस कब शुरू होगा, इसमें उनकी मर्ज़ी ठहरी। यहाँ नवाबों की तरह फ़रमाईश नहीं चलती। प्रकृति -रानी के साथ जो जी से झूम ले, वही विजेता है।

 रिसॉर्ट के वातानुकूलित कमरे को खोलकर ताजी हवा और मचलती बूंदों को कुछ सीमाओं में ही सही, अंदर आने दिया।पुरी के मशहूर मॉडल बीच में अवस्थित इन रिसॉर्ट और होटलों का प्रमुखतः नारियल के पेड़ों के बीच होना आँखों को सुकून देता है। कल रात जब टैक्सी से उतरकर रिसॉर्ट में चैक-इन करने जा रहा था, रिसॉर्ट के सीखे-सिखलाए स्टॉफ सदस्यों से पहले, पेड़ों पर अपना ठिकाना बनाए परिंदों ने बाहर सड़क पर पूरे दल-बल सहित,सामूहिक कलरव से हमारा स्वागत किया। उन्होंने हम परदेशियों के लिए शायद इसे अपना स्व-घोषित कर्तव्य समझा हो।

 सच, प्रकृति की सुरम्यता की कोई तुलना नहीं है और इन्हीं के बीच अगर कुछ सभ्य तरीके से और कुछ संकोच के साथ मानव सभ्यता का अपना विकास रथ बढ़े तो बेहतर हो। प्रकृति को और प्रकृति में। जीते हुए हम अपनी मूल मानवीय प्रकृति 'संकोच' को न भूलें। कुछ भी लें तो एक सहज संकोच भाव से, दूसरों के लिए बचा कर रखे जाने की गुंजाईश सहित। स्रोत का आभार मानते हुए और सच्चे दिल से उसे दाता की पदवी देते हुए।ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन रुक सकेगा और उत्तराखंड जैसी प्राकृतिक विनाशलीला से हम बच सकेंगे। धारणीय विकास (sustainable development) के पीछे भी तो आखिर मूल अवधारणा यही है न!

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पुरी से कोणार्क की यात्रा। मिनी बस से। पीछे की अंतिम सीट पर।दो लेन की सड़क। दोनों तरफ हरे भरे पेड़ों का एवन्यू। सामने दायीं तरफ एक प्रेमी युगल। एक दूसरे से चुहल करते हुए।बस में ज़ोर से उड़िया गीत बज रहा है। बीच बीच में लोग चढ़ उतर रहे हैं।

यह सुखद है कि ज़्यादातर लोग चर्बी-मुक्त हैं।अधिकतर लड़कियां सांवली हैं, मगर उनमें से कुछ ने आकर्षक ढंग से अपनी वेणी गूँथ रखा है। पुरी से कोणार्क का भाड़ा रु. 25/व्यक्ति। ऑटो में जाना आना रु.600/- और टैक्सी में अमूमन 1200 रुपए। ज्यादातर पुरुष पान या गुटका चबाते रहते हैं।

अभी अभी धोती कुर्ते में चढ़े दो बुजुर्गों में से एक के पैर में हवाई चप्प्पल है और दूसरे के पैर में वह भी गायब है। मगर चेहरे का संतोष, इसे किसी विपन्नता मानने को तैयार नहीं है।

सड़क की दायीं तरफ , कोणार्क से कुछ पहले, बंगाल की खाड़ी का एक हिस्सा भी आया।सुबह सुबह पुरी में समुद्र तट का भ्रमण याद हो आया। गीले जूते, उसके अंदर पैठा रेत और धीरे धीरे सूखते पैन्ट के पायंचे...एक बार समुद्र किनारे समय बिताईए, समुद्र देर तक आपके साथ रहता है।

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पुरी से कोणार्क जाते हुए बंगाल की खाड़ी के जिस विस्तार की बात कर रहा था, कोणार्क से पुरी लौटते हुए, रास्ते में मन वहाँ जाकर रुकने और उसे देखने से खुद को रोक नहीं पाया। मालूम चला, यह प्रसिद्ध चंद्रभागा का समुद्र तट है।

 अभी इसी तट पर किनारे से कुछ पहले बनी सीढ़ियों पर बैठा हूँ। ठीक सामने समुद्र का अंतहीन विस्तार। सामने से आती समुद्र की फेनिल परतदार लहरें और पूरे शरीर को सहलाती/दुलारती समुद्र से आती नमक मिश्रित शीतल हवा-पूरा शरीर मानों तरोताजा हो गया हो। हवा के तेज थपेड़ों से उड़ते सिर के बाल, पीछे की ओर भागती शरीर में पहनी कमीज, रह रहकर आसन लगाए और पालथी मारे इस वज़नदार शरीर को उसकी चूल से हटाने की कोशिश करती, समुद्र समर्थित वेगवती हवा...समुद्र जैसा विशाल और अहर्निश श्रमरत जल-पिंड अपने पास,आपको स्थिर नहीं रहने दे सकता है।पहाड़ अगर विशाल है तो अचल भी, नदी अगर प्रवाहमान है तो पाटों में घिरी भी, मगर समुद्र विशाल है और पाटों का बंधन भी उसे स्वीकार्य नहीं।

 शाम के छह बज रहे हैं और चेहरे समेत पूरे शरीर पर गिरती हवा में शीतलता का प्रतिशत बढ़ता चला जा रहा है। लगता है, समुद्र के अदृश्य, विस्तारित अनंत हाथ मुझे दुलार रहे हैं। मेरे शरीर की मालिश कर रहे हैं। सच, समुद्र प्रकृति का सर्वाधिक चलायमान निर्माण है।अफसोस कि यहाँ से उठकर जाना भी होगा।कह सकते हैं, चंद्रभागा और चंद्रभागा के लोगों के इस भाग्य से ईर्ष्या होती है। समुद्र किनारे का यह कस्बा, कई ख़ालिश मैदानी शहरों और महानगरों को हरा देता है।

यहाँ से उठ रहा हूँ, पैरों में रेत और शरीर में अतिरिक्त लवण साथ लिए।

आमीन!!

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चीनू हमारे रिसोर्ट के कमरे में बिस्तर की चादर बदल रहा है। बड़े करीने से और तन्मयतापूर्वक। यहाँ हॉउस कीपिंग का काम करता है। तीन हजार के वेतन पर। नौ घंटों की ड्यूटी। रहना और खाना-पीना इसी रिसॉर्ट में। हिंदी और अंग्रेज़ी कम ही समझता है। रघुनाथ आदर्श महाविद्यालय से 12 वीं पास किया है। और अभी एक कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई कर रहा है। खाली समय में कोचिंग जाता है। तैयारी करने के वास्ते। 19 वर्ष की उम्र में उसकी आँखों पर चश्मा भी लग गया है।बड़े बेहतर तरीके से तौलिए को फूल बनाकर बिस्तर पर एक किनारे रखता है।

 जाने क्यों, मुझे संघर्षरत व्यक्ति शुरू से ही बड़ा आकर्षित करता है। संभव है,चीनू मन ही मन सोचता हो, ये इतने सवाल क्यों करते हैं! कईयों को मैं अतिरिक्त रूप से भावनात्मक भी लग सकता हूँ। जबकि, मैं मेरी राय में एक व्यावहारिक व्यक्ति ही अधिक हूँ। हाँ, इस दुनिया में तमाम अंतर्विरोधों और मोहभंग के बावजूद रागात्मकता को ही वह चुंबकीय शक्ति मानता हूँ, जिससे हम सब एक दूसरे से बंधे हुए हैं।फिर मेरी राय में व्यावहारिक होते हुए रागात्मक हुआ जा सकता है।कइयों को दोनों में विरोध दिखता है, मुझे नहीं। हाँ, व्यावहारिक लोग कबीर की तरह सीधे-सीधे खरी-खोटी सुनानेवाले नहीं होते, तुलसी की तरह थोड़े पेचीदे और परतदार होते हैं। मगर दोनों के भीतर प्रेम की गंगा समान रूप से प्रवाहमान होती है।

 कई बार सोचता हूँ, लोगों से मैं इतने सवाल क्यों करता हूँ? अंदर से कोई जवाब आता है...मैं सबसे अधिक प्रेरणा इन्हीं से पाता हूँ। मेरी कविताओ में (जिनमें से कई हमारे समाज के ऐसे नायकों पर लिखी गई हैं और संभव है विवरण की बहुलता के कारण कईयों को उनमें कविताई कम या नहीं भी दिखती हो) प्राण वायु यही फूंकते हैं और मेरी अबतक काफी कम लिखी गई कहानियों में ज़्यादातर चरित्र चित्रण इन्हीं का होता है। वैसे भी प्रवासी कामगारों और नौकरीपेशा लोगों का जीवन तुलनात्मक रूप से अधिक घटना-बहुल होता है और उसमें कहानियों के तत्व अधिक मिल जाते हैं। खासकर उन लोगों की तुलना में, जो कई कई वाज़िब कारणों (जिनमें से अधिकांश को मैं वाज़िब कारण नहीं मानता)से एक ही शहर/कस्बे से पुश्त दर पुश्त चिपके रहते हैं। वैसे भी आज पूरे विश्व के साहित्य में प्रवासन पर कई विधाओं में बहुत कुछ आकर्षक लिखा जा रहा है।ख़ैर, बात लंबी हो जाएगी। अभी नीचे रिजोर्ट के रेस्टोरेंट में परिवार सहित डिनर करने भी जाना है। फेसबुक पर नियमित पोस्ट की जा रही इस यात्रा डायरी के बहाने काफी कुछ (अच्छा बुरा जैसा भी) लिख रहा हूँ तो दूसरी तरफ परिवार और बच्चों को आवश्यक और वांछित समय भी देना है। हाँ, अपना अधिक से अधिक समय चुराकर यह डायरी लिखता चला जा रहा हूँ।इस तरह लेखन के लिए समय चुराना लेखकीय प्रतिबद्धता हो न हो मगर इसमें अभिव्यक्ति का एक जुनून तो है ही। अब देखिए न, चीनू तो कब का यहाँ से चला गया, मगर उससे हुए संवाद के सिरे को पकड़े हुए मैँ अबतक अपने मोबाइल पर यह सब लिखता चला जा रहा हूँ। हाँ, मेरा कवि इस बार ताने कुछ अधिक दे रहा है,सारा समय डायरी को ही दोगे या मेरे लिए भी कुछ निकालोगे!

देखिए, क्या जाने कविता के इस ताने से ही कोई कविता फूट निकले!

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16 जून, 2015

अलविदा पुरी, चंद्रभागा, कोणार्क। प्रस्थान, भुवनेश्वर की ओर। अलविदा बंगाल की खाड़ी, अपनी सी थोड़ी गहराई मुझे भी दे दो। विदा लेता हूँ यहाँ के जोहड़ों से। सीधे तने तो कभी लचके हुए नारियल के पेड़,तुम्हें जब भी देखा सुष्मिता सेन की लचकती कमर याद आई।

 अभी अभी पुनः शुरू हो आई यहाँ की बारिश को सलाम। हाईवे से सटे पुरी के खेतों को और बारिश पीती मिट्टी को सलाम। यहाँ के खेतों में दिखे झक्क सफ़ेद बगुलों को भी नमन। दिल्ली जैसे महानगर में आने और कई बगुला भगतो से मिलने और उन्हें जानने से पहले, मेरे गाँव-खेतों में दिखते ये बगुले, मेरे बचपन-कैशोर्य की स्मृति में काफी गहरे धंसे हुए हैं।

पुरी से भुबनेश्वर ले जा रहे, कुछ गंभीर और कम मिलनसार प्रतीत होते हमारे टैक्सी चालक 'पंचानन' का आभार।

पुरी से भुबनेश्वर की दूरी 60 किमी है।

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आसमान को अगर एक समुद्र माना जाए तो सूरज उस समुद्र का एक कुशल और नियमित तैराक है
, जो तमाम विघ्न बाधाओं को पीछे धकेलता हर रोज़ आगे बढ़ता है।-अर्पण कुमार

 सूरज एक कुशल तैराक सा अपने दाएं बाएं के श्यामवर्णी बादलों को पीछे धकेलता आसमान में आगे बढ़ता चला जा रहा है। अपनी लालिमा के साथ। उसी सूरज की ओर मुँह किए, सड़क के डिवाईडर पर लगे कनेर से फूल तोड़ती पुरी की अनजान सांवली लड़की की पीठ को मेरी दृष्टि ने देर तक सहलाया।

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भुबनेश्वर के बीजू पटनायक हवाई अड्डे पर कुल दो एइरोब्रीज हैं। तुलनात्मक रूप से छोटा होते हुए भी यह साफ़ सुथरा और सुसज्जित है। 'दिल है छोटा सा छोटी सी आशा' गाने का संगीत, हल्की आवाज़ में कानों में रस घोल रहा है।

 कोलकाता से आया इंडिगो का विमान आधे घंटे के भीतर तैयार होकर मुंबई और कोयंबटूर जाने को तैयार है।एइरोब्रीज संख्या 1 से भुवनेश्वर उतरे यात्री निकास की तरफ मेरे सामने की गैलरी से गुजरते हुए गए।कुछ देर में उसी गैलरी की विपरीत दिशा से मुंबई और कोयंबटूर जा रहे यात्रियों को विमान में बोर्डिंग के लिए भेजा जाने लगा। विमान से आनेवालों के लिए और विमान में जानेवालों के लिए स्टील के खोखले पाईप में बंधी नीले रंग की पट्टी से बनाए गए अवरोध को क्रमशः पलट दिया गया।डैकोटा (A bite before you flight) में काम करनेवाले अरविंद ने सूचना दी , ' लैंड किए हुए विमान को पुनः टेक ऑफ़ के लिए पूरी तरह तैयार करने में चेन्नई , कोलकाता और भुबनेश्वर क्रमशः पहले,दूसरे और तीसरे क्रमांक पर हैं।संभव है,उसकी सूचना में कोई ग़लती हो, मगर तथ्यों की समुचित पड़ताल किए जाने तक, उसकी बातों पर भरोसा करने के सिवा मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। वह आगे बता रहा था, भुबनेश्वर एयरपोर्ट का रिकॉर्ड इस मामले में आधे घंटे का है। ये विमान के उतरने से पहले ही अपनी पूरी तैयारी किए हुए होते हैं ताकि उसमें से शीघ्र सामान आदि को बाहर निकाला जा सके और फिर नए गंतव्य को जा रहे सामानों को उनकी जगह रखा जा सके। विमान में फ्यूल इंजेक्शन का कार्य भी समय रहते पूरा कर लिया जाए।अरविंद से पूछता हूँ, 'प्रतिदिन तुम्हारी दूकान में कितने का सेल हो जाता है'।हल्की और मद्धम मुस्कराहट के साथ कुछ उदासी भरे स्वर में जवाब देता है, 'कम ही है सर'। उसके चौड़े और मजबूत दांत मुझे दिखते हैं। मुझे लगा, वह बताना नहीं चाहता । मैंने भी दुबारा पूछना उचित नहीं समझा। मगर हल्के अंतराल के बाद उसने स्वयं कहा, 'यही कोई रोज़ के पांच हजार'' डैकोटा' के बारे में उसने जानकारी देते हुए इसे उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के एक बड़े राजनेता बीजू पटनायक के नाम से जोड़ते हुए उसने अपने ख़ास अंदाज़ में कहा,'बीजू पटनायक के पास एक प्राइवेट प्लेन था,जिसका नाम डैकोटा था। उसी के नाम पर इस फ़ूड शॉप का नाम रखा गया है। भुबनेश्वर में एक होटल के मालिक इसके भी मालिक हैं।'

इस बीच,गुरू दंपत्ति के लिए पेजिंग अनाउंसमेंट किया जा रहा है। उन्होंने अबतक अपने संबंधित विमान में बोर्डिंग नहीं किया है।

 भुबनेश्वर में होटल चेन के मालिक और उड़ीसा व इसके बाहर कई शैक्षणिक संस्थाएं चलानेवाले एक व्यवसायी का प्राइवेट प्लेन अभी यहाँ लैंड हुआ है।दस सीटों वाले इस विमान का भुबनेश्वर के इस हवाई अड्डे पर रखने का मासिक किराया 70 हजार रुपए है।

 मुंबई में 15000 रुपए मासिक कमानेवाले अरविंद को यहाँ भुबनेश्वर में प्रति मास रु.5000/- मिलते हैं। मगर एक छोटे से कमरे में कई लोगों के एक साथ रहने और शौच के लिए रोज़ कतारबद्ध होने से तंग आकर वह एक तिहाई वेतन पर भुबनेश्वर आने को तैयार हो गया। मुझसे बताने लगा,'सर, वहां समस्याएँ आए दिन बढ़ती चली जा रही थीं। फिर भी मैं किसी तरह एडजस्ट कर रहा था।' मगर जैसे हर अंतिम निर्णय के पीछे कोई एक तात्कालिक कारण होता है,अरविंद के मुंबई परित्याग के पीछे भी एक वजह थी।अपने स्वभाव के अनुरूप धीरे-धीरे खुलते हुए उसने मुझे आगे बताया, 'और फिर वह कंपनी भी बंद हो गई सर।' कुछ ठीक से समझने और न सुनने पर एक ख़ास अंदाज़ में तीव्रता और धीरे से सॉरी बोलने वाले अरविंद में एक कारपोरेट कल्चर का छोटा सा प्रभाव भी दिखा। संभव है, इसे उसने होटल मैनेजमेंट में अपने डिप्लोमा की पढ़ाई के दौरान या फिर मुंबई में काम करते हुए सीखा हो।

कुल 21 बिंदुओं से उड़ते हुए विमान के संकेतक वाले इंडिगो की उड़ान संख्या 6 ई 263 है,जिससे हम भुबनेश्वर से हैदराबाद जा रहे हैं।विमान में सूचना दी गई... भुबनेश्वर से हैदराबाद की दूरी एक घंटे बीस मिनट में तय की जा सकेगी।

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अब हैदराबाद से गोवा की यात्रा। उड़ान संख्या 6382, अनुमानित उड़ान अवधि पचपन मिनट।

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17 जून , 2015

 

गोवा एक सेब है,जिस पर दो पत्ते लगे हुए हैं। एक पत्ता महाराष्ट्र है और दूसरा कर्नाटक।

उत्तरी गोवा के अपेक्षाकृत एक शांत इलाके पोरवोरीम के एक होटल में ठहरा हुआ हूँ। गोवा में सबसे पहला काम ...कुछेक घंटे आराम किया। पुरी से आज अलस्सुबह निकला था। थकान लाजिमी थी। देर शाम सपरिवार घूमने निकला। खाना होटल से बाहर ही खाया।

एयरपोर्ट से यह होटल 35 किमी की दूरी पर है।एयरपोर्ट से होटल तक 62 वर्षीय प्रकाश जी की टैक्सी में आया। रास्ते में उन्हीं से बातें होती रही। प्री पेड टैक्सी में एक सुरक्षा बोध का तो अनुभव खैर होता ही है, मगर आपके हिस्से आए ड्राईवर का स्वभाव कैसा है, यह आप नहीं जानते और ड्राईवर के स्वभाव को भांपकर गुपचुप कोइ निर्णय लेने का अन्यथा उपलब्ध विकल्प यहाँ नहीं होता। ख़ैर, मेरे हिस्से आए प्रकाश जी। शुरू में उनके चेहरे पर मुझे एक अजनबियत दिखी, पर क्रमशः जाती रही।संवाद मंथन से जो शख्स सामने आया, वह एक शांत और मिलनसार व्यक्ति था। मुझे उनसे आगे बढ़कर ज़्यादा नहीं पूछना पड़ा। खुद ही गोवा के बारे में बताते रहे। स्वयं हवाई अड्डे के पास वास्को में रहते हैं। कहने लगे,गोवा में एक जगह उनकी एक और प्रॉपर्टी है।

दूसरी कक्षा तक पढ़े, दो बेटों और एक बेटी के पिता प्रकाश को यूँ प्रसन्नचित्त देखकर मेरे भीतर भी खुशी की एक लहर कौंधी।मुझे सहज ही ऐसे लोगों में अभिभावकत्व के कई तत्व नज़र आते हैं।

उनके दोनों बेटे होटल मैनेजमेंट कर शिपिंग इंडस्ट्रीज में नौकरी करते हैं और ज्यादातर समुद्री जहाज़ों पर ही रहते हैं। उनकी बातों में एक संतोष दिखा, बच्चे आज ठीक ठाक कमा रहे हैं। किसी पिता के लिए अपने बच्चों को सेटल्ड देखना एक बड़ा सपना होता है। प्रकाश जी के लिए या किसी भी पिता के लिए उस सपने के पूरा होने का क्या महत्व हो सकता है, सरलता से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। उनके एक बच्चे की शादी हुई है और शेष दो की क्रमशः करने की तैयारी है। प्रॉन सहित हर तरह के सामिष भोजन करने के शौक़ीन प्रकाश जी ने गोवा और पुर्तगाल के विगत और वर्तमान दोनों कनेक्शन पर रोशनी डाली और उसे रोजगार एवं पलायन के अपरिहार्य और संयुक्त कोणों से देखा।बताने लगे,गोवा के मूल निवासियों में से ज्यादातर अब गोवा से बाहर रहते हैं।यहाँ की पुर्तगीज कॉलोनियों की बात भी चली मगर ज़रा सी। किसी और सन्दर्भ के आने पर बात बदल गई। मेरे यह पूछने पर कि क्या जून में यहाँ पर्यटक कम आते हैं,उन्होंने जानकारी दी,'पहले ऐसा था। मगर आजकल पर्यटक यहाँ की बारिश भी देखने आ रहे हैं।' मुझे लगा, पश्चिमी भारत में मानसून पर्यटन अच्छा ख़ासा लोकप्रिय हो रहा है।

 — at Foody Breaks.

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18 जून, 2015

गोवा चैप्टर -1

कटहल के पेड़ अच्छी संख्या में गोवा में देखने को मिले। मैंने इसका जिक्र किया, मगर दत्ता इसे समझ नहीं पाया। तब उसे पेड़ की ओर दिखाया और वहीं से कोंकणी बनाम हिंदी की एक लघु चर्चा शुरू हुई।

हिंदी का कटहल, कोंकणी का फणस (fanas) है, टमाटर, टमाट ; पानी, उदक (udak); और चावल तानुळ (tanul)।दत्ता राज से ऐसी ही कुछ बातें होती रही हुई। दिन भर उत्तरी गोवा में घूमने के लिए( 80 किमी) एक टैक्सी किया। सुबह 10.30 से शाम 7.30 तक।दत्ता राज,आज का टैक्सी ड्राइवर रहा।

बारिश सहित कुछ अन्य कारणों से पूर्व निर्धारित योजना फलीभूत नहीं हो सकी और इस मद में मेरे द्वारा चुकाए गए भाड़े और इसके लिए आए दत्ता के समय का आंशिक उपयोग ही हो सका। ख़ैर, इसी का नाम यात्रा है, जहाँ लाख कोशिश कर लो, सबकुछ आपके हिसाब से नहीं हो सकता । मानसून की बारिश ने जहाँ गोवा को आज खूब भिगोया, वहीं हमलोगों ने भी उसका भरपूर आनंद लिया। बच्चों को देखते हुए छतरी आवश्यक लगी। सो, पत्नी ने कुछ मोलभाव करके एक छतरी 180 रुपए में खरीदी। आज प्रमुखतः रेज मागोस (The Reis magos Fort) और अग्वाद किला ही घूमना हो सका। हाँ, कुछ अन्य जगहों से गाड़ी में बैठे हुए गुजरना हो सका।विंडो शॉपिंग के तर्ज़ पर कुछ कुछ इसे विंडो ट्रैवलिंग कहा जा सकता है।

समुद्र के इठलाते पानी को सड़कों तक आना और उनपर उसका फैलाव, गोवा की सड़कों और पर्यटन-स्थलों पर हाफ पैंट में घूमती लड़कियो/महिलाओं का मादक भ्रमण, जगह जगह बीयर की दुकानें, तरह तरह के टैटू बनाए जाने का आकर्षण,पानी से लबालब भरे खेतों में धान के पौधों को अपनी जड़ें जमाने की कोशिश ...सबकुछ ध्यान से देखता रहा। प्राकृतिक आकर्षण के गिरफ़्त में आकर तो कभी पुरुषोचित लोलुपता में घिरकर।बारिश में नहाते समुद्र को देखना कुछ ऐसा लगा मानों भरपेट भोजन करने के बाद कोई शख्स सौंफ-चीनी चबा रहा हो। विशाल जलराशि पर बूंदों का गिरना कुछ ऐसा लग रहा था मानों एक लंबे चौड़े बरगद पर नन्हीं नन्हीं चींटियां रेंग रही हों।

भींगे कपड़ों में भींगते गोवा को देखना एक स्मरणीय अनुभव रहा।...

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गोवा चैप्टर -2

गोवा में मांडवी पार कुछ गाँव हैं । वहाँ के कई निवासी, सरकारी स्टीमर से अपने वाहनों सहित, इधर नदी पार शहर में आते रहते हैं। वापस उन्हीं स्टीमरों पर अपने दुपहियों को लादकर अपने गांवों में चले जाते हैं।स्टीमर की इस फेरी पर कारों को भी लाया और ले जाया जाता है, मगर थोड़ी असुविधा होती है और अमूमन उनकी संख्या कम होती है। माण्डवी के दोनों तटों पर कई जगह ऐसी सरकारी फेरियाँ लगी रहती हैं, जो लोगों को निःशुल्क यह सुविधा उपलब्ध कराती हैं।आम जनों खासकर यहाँ के ग्रामीणों के लिए फेरी की यह निःशुल्क व्यवस्था, निश्चय ही राहतकारी होती होगी। किसी जनकल्याणकारी शासन में ऐसी व्यवस्थाओं का होना सुखद है मगर इसकी अपेक्षा आश्चर्यजनक नहीं है। आस्ट्रेलिया जैसे देशों में आर.ओ. का पानी स्वयं सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। सऊदी अरब में लोगों की आमदनी पर सरकार द्वारा कर नहीं लिया जाता।यू.के. सहित यूरोप के कुछ देशों में लोगों को बेरोजगारी भत्ता दिया जाता है। विदित है कि हैरी पॉटर के हिट होने से पूर्व, जे.के रॉलिंग की आर्थिक स्थिति कुछ ऐसी थी कि उन्हें सरकार के बेरोजगारी भत्ते पर जीवन यापन करता था।बाहर के कई देशों में ओल्ड एज होम को लेकर सरकार पूरी तरह समर्पित नज़र आती है। अमेरिका में कारों पर तुलनात्मक रूप से एक्साइज ड्यूटी काफी कम है।इससे आमजनों को कई तरह की राहतें मिलती हैं और वे कई दूसरे सर्जनात्मक कार्यों में अपना ध्यान लगा पाते हैं ।

 

 

गोवा में दो मुख्य नदियाँ हैं -मांडवी और जुआरी। मांडवी पंजी में है और जुआरी दक्खिनी गोवा में। दोनों पूरब से पश्चिम बहती हैं और अरब सागर में गिरती हैं।नदियाँ,समुद्र, झरना ( दूध सागर ), मिट्टी में धान, मसाले,फल; मिट्टी के नीचे लोहा...प्रकृति ने गोवा को दोनों हाथों से जी भर दिया है।

 

आज मुख्यतः दक्खिनी गोवा के उन अधिकांश पर्यटन स्थलों का दौरा हुआ जहाँ सामान्यतः सभी पर्यटक जाते हैं और जिनके बारे में सभी कमोबेश अवगत हैं।

 

दकखनी गोवा में स्थित मिरामार समुद्र तट पर आज दो बार जाने की कोशिश की, मगर दोनों बार तेज हवा के साथ तिरछी और मूसलाधार बारिश ने हमें मीरामार के पास जाने से पहले ही भगा दिया। यह प्रकृति का अपना अश्रु गोला है।समुद्र तट चाहे लाख मनोरम हो और हम पर्यटक कितने भी जुनूनी, मगर समुद्र हर मामले में हम सब पर बीस ठहरता है। वह इस पृथ्वी का सबसे हैवीवेट बॉक्सर है। वह हम सबसे सैकड़ों गुना अधिक बलवान है। उसकी ईच्छा के विरुद्ध क्या मज़ाल कि हम एक क्षण के लिए उसमें अपना एक पैर तक रख सकें। टायटैनिक जैसा विशालकाय और अपराजेय समझा जानेवाला जहाज उसके आगे टुकड़े टुकड़े हो गया। यही आज अरब सागर हमारे साथ कर रहा था। वह शायद आज पर्यटकों की भीड़ से खुद को अकेला रखना चाह रहा था।रह रह कर उसके तट से तूफ़ान संग ऐसी बारिश आई कि दूर सड़क पर तने नारियल के बड़े बड़े फल नीचे कारों और राह चलते लोगों पर आ गिरे। हल्की बारिश में अभी अभी मोलभाव करके छतरी ले गए पर्यटकों की छतरियां पलट गईँ। कुछेक की छतरियां उनके हाथों से ऐसी छूटीं कि समुद्र तट से उड़ती हुई सड़क तक आ गईं, मगर उनके हाथ नहीं लगनी थी, सो अंत अंत तक नहीं ही लगीं।

 

मनुष्य समुद्र पर हक़ जमाता है, उसे समुद्र भगाता है। मनुष्य अपनी खरीदी छतरी पर हक़ जमाता है, उसे छतरी भगाती है।मनुष्य अपने बच्चों पर हक़ जमाता है,उसे उसके बच्चे भगाते हैं।सोचता हूँ, क्या किसी पर हक़ ज़माना,उसके पीछे भागना मात्र है!

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19 जून 2015

गोवा चैप्टर 3

 Airport के लिए कुछ जगहों पर विमानतळ और Ltd के लिए मर्यादित का प्रयोग पहली बार गोवा में देख रहा हूँ।

 आज गोवा से निकलना हो रहा है। कोच्चि जा रहा हूँ।

 लगातार बारिश से गोवा की सड़कें भीगी और धुली हुई हैं।

इस बार हवाई अड्डा छोड़ने ले जा रहे टैक्सी ड्राइवर गोविन्द हैं। सफ़ेद शर्ट और पैंट के यूनीफॉर्म में। आमिर खान की स्टाईल में महानुभाव अपने निचले होंठ के नीचे थोड़ी सी दाढी रखे हुए है। हल्का तुतलाते हैं। हँसमुख और मृदुभाषी हैं। वेतन 9000 रुपए है। सीज़न में ओवरटाईम मिलाकर 15000/ और ऑफ़ सीज़न (इन दिनों) में 12000/- रुपए तक की मासिक आमदनी हो जाती है। उनसे बातचीत हो रही है।

 कई तटवर्ती राज्यों की तरह गोवा में भी समुद्र में 01 जून से 31 अगस्त तक फिशिंग सरकारी स्तर पर प्रतिबंधित है। नियम तोड़नेवाले को जुर्माना है और उनकी जान को जोखिम भी।

 विदेशी ज़्यादातर अक्टूबर से मार्च तक गोवा में रहते हैं और गर्मी बढ़ने से पहले चले जाते हैं। अधिकांश भारतीय पर्यटक अप्रैल मई में अमूमन यहाँ आते हैं।बातचीत के एक प्रसंग में ज्ञात हुआ कि स्थानीय लोग यहाँ रक्षा मंत्री को सौरक्षण मंत्री कहते हैं। गोविन्द, गोवा के एक गाँव में रहता है। उसने बताया की सामान्यतः वहाँ बिजली पानी की अमूमन नियमित आपूर्ति है।

 गोवा में पिछले तीन वर्षों से खनन उद्योग बंद पड़ा है।यही कोई 7000 से ऊपर ट्रक, इस उद्योग में लगे हुए होते थे और खनन स्थल से लौह अयस्क की ढेर को समुद्री जहाजों तक ले जाते थे। उन विभिन्न स्थलों से वास्को में डॉक तक लौह अयस्क की ढुलाई में 2000 से ऊपर जहाज काम किया करते थे। हजारों लोगों की रोजी रोटी इनसे जुड़ी हुई होती थी। मगर अब,जब खनन कार्य बंद पड़े हैं,हज़ारों ट्रक और जहाज भी यूँ ही जहाँ तहाँ ठप्प पड़े हुए हैं और उनसे जुड़े लोग भी।कुछ लोगों ने बाहर का रुख किया है, मगर इसमें अलग तरह की कई व्यावहारिक दिक्कतें हैं।सरकार, ट्रक मालिकों को प्रतिमाह करीबन आठ हजार रुपए दे रही है मगर ट्रक ड्राइवर समेत कईयों को अभी आश्वासन से ही काम चलाना पड़ रहा है। अगर सरकारी बाबुओं, विभिन्न सरकारी/निजी उपक्रमों के कुछेक दूसरे व्यवसायों में लगे लोगों को छोड़ दें तो गोवा की आबादी मुख्यतः पर्यटन और खनन उद्योग से जुडी हुई है। पर्यटन उद्योग में मौसम के अनुसार उतार चढ़ाव है तो खनन उद्योग (चाहे जिस कारण से) लंबे समय से बंद पड़ा हुआ है। कृषि और डेयरी उद्योग से कुछ लोग जुड़े हुए हैं मगर उसमें आमदनी अत्यल्प है और नई पीढी अन्य जगहों की तरह यहाँ भी इनसे बचना चाह रही है। वैसे भी यह सेक्टर यहाँ सीमित संभावनाओं का है।स्थानीय लोगों की बेरोजगारी और उन्हें मिलनेवाले अत्यल्प वेतन की यह स्थिति भयावह है।

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गोवा से बेंगलूरू की विमान यात्रा 6 349 (इंडिगो) से । उड़ान अवधि 50 मिनट।

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उड़ान संख्या 6 ई 425 (इंडिगो)

बेंगलूरू से कोच्ची की उड़ान यात्रा की अवधि 50 मिनट।

 मोबाइल की बैटरी जा रही है। लिखना कम रखूँगा। पुराने समय में एक गाना लोकप्रिय हुआ था...तिरछी टोपी वाले,जिसमें पुरुष के बांकपन को उभारा गया था। मगर इन विमान परिचारिकाओं पर सुसज्जित तिरछी टोपियां, स्त्रियों के बांके सौंदर्य की एक नई उद्घोषणा प्रतीत होती हैं।

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उड़ान संख्या 6349 (गोवा से बेंगलूरू /इंडिगो)

 

इस वर्ष की अपनी यात्रा श्रृंखला में ज्यादातर विमान यात्राएं इंडिगो के विमानों से हो रही हैं। हमारे गंतव्यों के बीच अधिकांश में इनके विमान ही हमारे अनुकूल उपलब्ध रहे।घरेलू विमानों की इस लंबी शृंखला में अपनी पहुँच अधिक से अधिक शहरों/यात्रियों तक बढ़ाने के लिए एयर इण्डिया सहित बाकी विमानन कंपनियों को इस दिशा में सोचने की ज़रुरत है। हाँ, पोर्ट ब्लेयर तक इंडिगो की अभी पहुँच नहीं हो पाई है।

 फिर भी कुछेक खण्डों में जेट एयरवेज और एयर इण्डिया की सेवाएं भी लूँगा।

 पहली बार गोवा बेंगलूरू सेक्टर की इस उड़ान में विमान की कई सीटें खाली देख रहा हूँ। यात्रियों की संख्या कम होने के कारण, विमान परिचारिकाओं ने आइल पर भोजन की गाड़ी को लाए बगैर, अपनी हथेलियों में लिए, पूर्व क्रयित नाश्ते (टिकट बुकिंग के वक्त खरीदे गए) निर्धारित सीटों पर पहुँचाना शुरू कर दिया।तत्काल मांग कर रहे यात्रियों के साथ भी यही प्रक्रिया अपनाई गई।ऑन बोर्ड सामानों की खरीद की कोई उद्घोषणा नहीं की गई और न ही किसी यात्री ने इसमें कोई रुचि दिखाई।जब इन सामानों की घोषणा होती है, तब भी इनमें कम ही यात्री रुचि लेते हैं।

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घरेलू स्थानांतरण के माध्यम से बेंगलूरू हवाई अड्डे पर कोच्ची के लिए सुरक्षा जांच पूरी हो चुकी है।आज रात कोच्ची में ठहरना होगा।

 

 

विमान में मेरी खिड़की से लिया बेंगलूरू शहर का एक विहंगम दृश्य(संलग्न)।

 

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21 जून, 2015

 

कोच्ची और एर्णाकुलम दोनों जुड़वाँ शहरें(ट्विन सीटीज) हैं।एर्णाकुलम में एम जी रोड के जिस होटल में ठहरा हुआ हूँ, अभी उसके स्वागत कक्ष के सामने सुसज्जित सोफे पर बैठा हुआ हूँ। छोटा सीलिंग फैन अपने आकार की तुलना में कुछ अधिक ही हवा दे रहा है। बड़े डैने के पंखों की तुलना में वह कहीं से कम नहीं रहना चाहता। सामने टेबुल पर एक-एक अखबार की पांच पांच प्रतियाँ रखी हुई हैं, जिनमें मलयालम के मलयाला मनोरमा सहित अंग्रेज़ी के द हिन्दू, डेक्कन क्रॉनिकल, केरल क्रॉनिकल, द न्यू इन्डियन एक्सप्रेस जैसे अख़बार शामिल हैं। विस्तार से तो नहीं, पर इनके मुख्य पृष्ठों पर एक नज़र अवश्य डाली।

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कोच्ची के मैरीन ड्राईव में यहाँ वहाँ रखी कुर्सियों में से एक पर बैठा हुआ हूँ । सामने बैक वाटर है, जिसमें अरब सागर और पेरियार नदी दोनों का पानी है। कुछ यात्रियों को बिठाए और शेष के इंतज़ार में किनारे पर रुकी नौकाएँ बैठे बैठे हिचकोले खा रही हैं।

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फोर्ट कोच्ची घूमना हुआ। पुर्तगालियों द्वारा बनाए गए किले की दीवार देखी। समुद्री अतिक्रमणकारियों को रोकने के लिए उन्होंने दीवार पर बन्दूक लगा रखे थे, जिनमें से एकाध अब भी वहीं खुले में पड़ा है। उनके जहाज़ों में स्टीम निर्माण के लिए आवश्यक ब्यौलर भी देखने को मिले।

 कोच्ची में दुकानें खूब हैं।हर तरह के सामान प्रचुरता में दिखे। एक ख़ास जगह नज़र गई। यहाँ कई तरह के नमकीन खाया/खरीदा जा सकता है।

 समोसे,कटलेट,रोल आदि में बीफ़ का प्रयोग सहजता और प्रचुरता में देखने को मिला।

 डोसा,बड़ा,इडली आदि यहाँ स्वादिष्ट हैं और तुलनात्मक रूप से सस्ते भी।

 हर शहर का अपना कुछ ख़ास मिज़ाज़ और अपने कुछ ख़ास व्यंजन होते हैं।यथासंभव, उन्हें एक बार आजमाने की कोशिश करता हूँ। यहाँ एर्णाकुलम में, Ila Ada (एक स्वीट डिश) सहित Iddiyappam Curry, Puttu Kadala जैसे कुछ नए स्थानीय व्यंजन भी चखने का लुत्फ़ उठाया।

 कोची फोर्ट पर बर्फ़ से घिरी कई तरह की मछलियों को खरीदने और पास ही में उन्हें बनवाकर खाने का विकल्प मौज़ूद है। मगर, मछलियों की कीमत मुझे कुछ अधिक लगी।

 तट का पानी गंदला और कई दैनंदिन प्रयोग की वस्तुओं के रैपर/डब्बों से भरा हुआ था। जलकुंभी के सूखे ढेर भी यत्र तत्र फैले हुए थे। पुरी और गोवा की तुलना में समुद्र तट गंदला दिखा।

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अभी पौ नहीं फटा है। सुबह के साढ़े पांच बजे हैं। बाहर हल्का अँधेरा ही है। हमलोग कोच्ची शहर से मुन्नार की ओर बढ़ रहे हैं।। एन एच 47 (कोच्ची से कन्याकुमारी) पर कुछ दूर चलकर अब हम उससे अलग किसी और सड़क पर आ चुके हैं।

 नाईटी और स्लीपर में कोच्ची की कुछ महिलाऐं टहल रही हैं। लड़कियाँ सूट में हैं और कुछ ने स्कर्ट टीशर्ट भी पहन रखा है। पुरुष पैंट शर्ट में हैं और कुछेक ने घुटने तक लुंगी भी लपेटे रखी है।

 मॉर्निग शिफ्ट में काम करनेवाली कुछ महिलाऐं अपने दाएं कंधे में पर्स लटकाए पैदल अपने कार्य स्थल की ओर जा रही हैं। आकाश में हलके काले बादल हैं, यहां की सांवली स्त्रियों की पीठ के रंग के। जब ये चलती हैं तो सद्यःस्नात इन स्त्रियों की जुल्फों के नीचे बादल का एक अलसाया टुकड़ा भी साथ चलता है।जब तब पानी की कुछ बूँदें झटकता हुआ।श्रम गौरव से ऊर्जस्वित इन स्त्रियों की चपल पदचापों से यहाँ सूर्योदय होता है।

 मुन्नार की चढ़ाई शुरू हो चुकी है। कोच्ची से मुन्नार की दूरी लगभग 140 किमी है। रास्ते में रबड़ के पेड़ अच्छी संख्या में हैं।

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एन एच 49 (कोच्ची- मदुरई ) मुन्नार से होकर जाता है। चियापारा वाटर फॉल रास्ते में आनेवाला मुन्नार का एक बड़ा जलप्रपात है।यहाँ जगह- जगह ऑर्गेनिक स्पाईस फार्मिंग होते हैं,जिसका शुरूआती हिस्सा, ईको-टूरिज्म के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है।यहाँ ऐसे कई फ़ार्म हैं, जहाँ प्रति व्यक्ति रु.100/-के हिसाब से किराया देकर आप मसाले के विभिन्न पौधों और उनके पेड़ों को करीब से देख-समझ सकते हैं। साथ में एक गाइड होता है, जो आपको इनके बारे में अपनी जानकारी के अनुसार बताता चलता है। संभव है,आप उससे अधिक जान रहे हों या फिर वह कुछ ग़लत भी बतला रहा हो, मगर कई बार श्रोता मात्र की भूमिका अधिक प्रीतिकर होती है। वैसे,ये गाइड प्रोफेशनल होते हैं और आपकी किसी न किसी बहाने प्रशंसा ही करते हैं।

 मेरे गाइड का नाम सुनील है और उसके द्वारा बताई गई बातों को सार रूप में निम्न प्रकार रख रहा हूँ:-

1.ब्राह्मी (brahmi) के इस्तेमाल से दिमाग ठंडा रहता है,आँख की रोशनी और हमारी एकाग्रता बढ़ती है।

2.पेपर मिन्ट का तेल सिर पर लगाइए।सिर दर्द को दूर करने और अच्छी नींद लाने में यह सहायक है।

3.चिकन बिरयानी सहित विभिन्न खाद्य व्यंजनों में जायफल (net mack) के प्रयोग के कई लाभ हैं। यह मांसाहारियों के हाजमे को ठीक रखता है।

5.नीलांबरी का तेल, डैंड्रफ को दूर करने और हेयर फॉल को रोकने में कारगर है।

6.कौडुवेली, आर्थराइटिस के लिए लाभकारी है।

7.एरंडा का तेल, बॉडी मसाज के काम आता है।

8.नन्दियार वट्टयम,स्पांडेलाइटिस में सहायक है।

9.कोको पाउडर का विभिन्न पेय पदार्थों में स्वाद के लिए प्रयोग किया जाता है।

10.कुमुलु वेरु , हमारी चर्बी को कम करता है

11.अश्वगंधा ,थकान को दूर करने और हमारे शरीर की प्रतिरोधी क्षमता को बढाने में बड़ा उपयोगी है।

12.Stoned banana tree में 12 साल के बाद फल आता है। इसके केले को खाया नहीं जाता, मगर किडनी स्टोन को दूर करने में इसका प्रयोग होता है।

 

 

मैंने इस फॉर्म में लांग का पेड़ देखा।सुनील ने असली और नकली लौंग का फ़र्क़ समझाया।

 

इस फॉर्म में एक टैंक में छोटी छोटी कई मछलियाँ हैं, जिसमें आपको कुछ देर पैर डालकर बैठना है।वे मछलियाँ, आपके पैर के तलवे की गन्दगी को क्रमशः खाती हैं।यह पैरों का फिश पेडीक्योर है।

पेरियार नदी पर बने नेरियमंगलम पुल से गुजरना हुआ।

धूप, बादल और वर्षा के मौसमी त्रिभुज में घिरा हुआ , मुन्नार घूमता रहा। तबीयत खराब रही और मौसम पर बारिश का आधिपत्य कुछ विशेष रहा। फिर भी यहाँ के सभी मुख्य पर्यटन स्थल लगभग देख ही लिया।

 

ज्ञात हुआ कि मुन्नार के पूरे चाय बागान पर एक कंपनी समूह का एकाधिकार है।उत्तर उदारीकरण के दौर में यह एक अलग किस्म का साम्राज्यवादी विस्तार है।

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22 जून 2015

 

एलप्पी की ओर प्रस्थान। मद्धम से तेज होती बारिश।रास्ते में अरूर (Aroor ) नदी को पार किया। गाड़ी में मलयालम गीत बज रहा है। आवाज़ की मधुरता और संगीत का संयोजन प्रभावी है।काश कि इनके अर्थ भी समझ पाता। साथ बैठे ड्राईवर का हाथ हिंदी में और मेरा मलयालम में तंग है। इन गानों को सुनते हुए लगता है, कोई संस्कृत के श्लोकों का पाठ कर रहा है।वैसे भी मलयालम को संस्कृत के करीब माना गया है।

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कोच्ची से एलप्पी के रास्ते में चावल के आटे से बना Murukku खाया और नारियल का पानी पीया। सड़क किनारे के ये दूकान मालिक एक वृद्ध सज्जन हैं और थोड़े गंभीर नज़र आए। दूकान में एक सहायक रख रखा है मगर नारियल काटने का काम वे खुद कर रहे हैं। वह शायद चाय बनाने का काम करता है।एक नारियल के तीस रुपए...ईशारे में उन्होंने अपने दाएं हाथ की तीन उँगलियाँ ऊपर करके बताई। पीने के बाद नारियल कहाँ फेंकना है, संकेत से उन्होंने वह जगह भी दिखा दी। उस संकेत में एक दुकानदार का अनुरोध कम,एक वृद्ध का आदेश अधिक था।मैंने सादर उस आदेश का पालन किया।

 एलप्पी में ठहरने का समय नहीं था, सो घूमकर आ गया। वहां के बैक वाटर पर थिरकते बोट हाउस में रात्रि विश्राम या दिवस क्रूज का आनंद लिया जा सकता था, मगर पत्नी के डरने और समय की कमी के कारण यह संभव नहीं हो सका।हाँ, एक बोट हाउस में भीतर जाकर मुआयना करना न छोड़ा।

 

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केरल में गुटखे की बिक्री और देशी शराब का उत्पादन दोनों प्रतिबन्धित हैं। पान की बिक्री भी न के बराबर है। मुँह में कुछ न कुछ रखकर पगुराने और कहीं भी पिच्च मार देने की आदत लोगों में नहीं दिखी।

 केरल में स्कूल खुल चुके हैं। अभी थिरुअनंतपुरम जाना हो रहा है। एनएच 47 पर दायीं तरफ स्कूली बच्चों का एक झुण्ड दिखा। ट्रैफिक पुलिस कर्मी ने उनके आगे एक लीडर बनकर उन्हें सड़क पार कराया। यह दृश्य, इस सड़क पर मैंने दो बार देखा।

 अभी कोल्लम से गुजरना हो रहा है।

 इस हाईवे के दायीं और अरब सागर अपनी मौज़ में उपस्थित है, और बीच बीच में अपनी झलक हमें दिखा जाता है।

 केरल में बैक वाटर का इस्तेमाल नदियों की तरह किया जा रहा है।कश्मीर की तर्ज़ पर एलप्पी में बोट हाउस का बढ़ता प्रचलन, इसी का एक उदाहरण है। कश्मीर जाने में अनिच्छुक पर्यटक इधर अच्छी संख्या में आ रहे हैं। विकल्पों की राजनीति ही नहीं होती, विकल्पों का पर्यटन भी होता है।वैकल्पिक राजनीति और पर्यटन कब मुख्य धारा का हिस्सा बन जाएं,कहा नहीं जा सकता एक शहर से दूसरे शहर तक लोग नावों में बैठकर भी आते हैं। मसलन, कोच्ची से एलप्पी और एलप्पी से कोल्लम की यात्रा आप बैक वाटर पर नाव से पूरी कर सकते हैं।निजी और सरकारी दोनों तरह के नाव हैं। मगर सड़क यात्रा की तुलना में जल यात्रा मंहगी है।

 पूरे हाईवे पर दुकानों में जगह जगह नारियल और केले लटके दिखे। नारियल दो रंगों (पीला और हरा) के और केले तीन रंगों (पीला,हरा और कत्थई) के हैं। उत्तर भारत की तुलना में केला यहां महंगा पाया।

 कोट्टियम से गुजरना हो रहा है।

 दो लेन की इस सड़क के दोनों तरफ नारियल के पेड़ बहुतायत में हैं । कुछ लोग लुंगी पहने हुए बाइक चलाते दिख रहे हैं। दुकानों और मकानों पर लगे ज्यादातर होर्डिंग्स में स्थानीय कलाकार ही दिखे (अलग अलग दो ब्रांडों के विज्ञापन में ऐश्वर्या और करीना को छोड़कर)।हिंदी फिल्मों के पोस्टर इन शहरों में अमूमन नहीं दिखे। सिनेमाघरों में उनका प्रदर्शन भी इक्का दुक्का ही है।

 अभी आटिंगल से गुजरना हो रहा है।

 यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि केरल में कारों का टॉल टैक्स पांच और साढ़े आठ रुपए भी हैं।

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आज की संध्या, कोवलम के प्रसिद्ध समुद्र तट पर: कुछ झलकियाँ

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24 जून, 2015

 

अभी कन्याकुमारी जाना हो रहा है।विदित है कि विवेकानंद यहाँ 1892 में आए थे और यहीं से वे विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने शिकागो गए थे।उनकी याद में विवेकानंद मेमोरियल का निर्माण 1970 में किया गया।वहाँ जाने की बड़ी इच्छा थी, मगर देर से पहुँचने के कारण, उस जगह तक पहुँचना संभव नहीं हो पाया।

 

रास्ते में पद्मनाभपुरम (पैलेस )आया। उसे देखना हो पाया।लकड़ी के इस बड़े महल का एशिया में अपना एक विशिष्ट स्थान है।

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सड़क की बायीं तरफ दिख रहे पहाड़ पर बादल लेटकर आराम करते प्रतीत हो रहे हैं। ऊपर आकाश में तैरते तैरते थक गए होंगे शायद।

 

 

रास्ते में पार्वतीपुरम से गुजरना हुआ।

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अब नागरकोइल (Nagercoil) शहर से गुजरना हो रहा है । थिरूअनंतपुरम के ड्राइवर मनोज ने एन एच 47 से उतरकर यह रास्ता लिया है।बता रहा है,इससे मंज़िल तक जाने की तीन किलोमीटर की दूरी कम हो गई है।मंज़िल पर पहुँचने की जल्दी,जितनी हमें है,उससे अधिक जल्दी उसे हमें मंज़िल तक पहुंचाने की है। उसकी तत्परता और कर्तव्यपरायणता को सलाम ही किया जा सकता है।

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अब कोट्टाराम से गुजरना हो रहा है।

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कन्याकुमारी में आज सूर्यास्त देखा। पश्चिम की दिशा में अरब सागर के ऊपर डूबते सूरज के साथ बादलों का उमड़ घुमड़ जारी था। आज के दिन, सूरज के साथ हो रहे विछोह के ग़म का असर,समुद्र और आकाश दोनों पर एक जैसा दिख रहा है। दोनों के भीतर जुदाई का तूफ़ान अपने चरम पर है।

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सड़क के दोनों तरफ जो मनोरम प्राकृतिक दृश्य,कन्याकुमारी जाते हुए नज़र आ रहे थे, अब वापस थिरूअनंतपुरम लौटते हुए,उनपर रात्रि की काली चादर दूर दूर तक बिछा दी गई है।

 

रास्ते में बारिश हो रही है।सड़क पर गाड़ियों, लैंपपोस्टों, और दुकानों के प्रकाश पड़ रहे हैं।सड़क कई जगह, डिस्को के एक फ्लोर के रूप में तब्दील हो गई है।

 

कन्याकुमारी से थिरूअनंतपुरम की दूरी लगभग 100 किमी की है।

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जाने क्यों 'जिस्म' फ़िल्म की यह गजल,इसके पहले कभी सुना नहीं था। दिल से गाई यह ग़ज़ल और इसके दिलजले बोल-दोनों ने दिल को छू लिया।मलयाली टैक्सी ड्राईवर मनोज भी मन ही मन अवश्य ही कुछ सोच रहा होगा..इस ग़ज़ल को कार में मैंने यही कोई छह सात बार सुनी।ध्यान आया,महेश भट्ट एन्ड कंपनी की व्यावसायिक फिल्मों के गीत/ग़ज़ल भी बड़े मानीखेज़ होते हैं।सुनते हुए इसे लिखता भी रहा।

 

आवारापन,बंजारापन, एक खला है सीने में

 हर दम,हर पल बेचैनी है,कौन बला है सीने में

 

इस धरती पर जिस पल सूरज रोज़ सबेरे उगता है

 अपने लिए तो ठीक उसी पल रोज़ ढला है सीने में

 

जाने ये कैसी आग लगी है,इसमें धुंआ न चिनगारी

 हो न हो इस पार कहीं तो ख़्वाब जला है सीने में

 

जिस रस्ते पर तपता सूरज सारी रात नहीं ढलता

 इश्क की ऐसी राहगुजर को हमने चुना है सीने में

 

कहाँ किसी के लिए है मुमकिन,सबके लिए इक सा होना

 थोड़ा सा दिल मेरा बुरा है ,थोड़ा भला है सीने में।

 

रास्ते में उडूपी इंटरनेशनल रेस्टोरेंट ,Thenkarai Kumaracovil junction आया। रात्रि भोजन यहीं हुआ।


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आज सुबह मोहन से दाढ़ी बनवाई। विमान में रेज़र साथ लाने की अनुमति न होने के कारण बाहर सैलून का सहारा लेना पड़ा। दाढ़ी रोज़ नहीं बनाता हूँ, मगर चार पांच दिनों में एक बार तो बनाना ही पड़ता है।ख़ैर, पद्मनाभन मंदिर के सामने स्थित दुकानों के एक कोने में मोहन की एक सैलून है। प्रति महीने रु. 9000/के किराए पर उसने यह एक छोटी सी दूकान ले रखी है।' एक शेविंग के चालीस रुपए...रेट कुछ ज़्यादा है', मैं कहे बगैर रह नहीं सका। मोहन कुछ हड़बड़ा गया। भारत के अन्य राज्यों सहित कुछेक खाड़ी देशों में रह चुके मोहन को सैलून के विभिन्न रेटों का तुलनात्मक ज्ञान है। उसने सहजतापूर्वक इसे स्वीकार करते हुए इसके पीछे के कुछ स्थानीय एवं राजनीतिक (प्रदेश स्तर पर) कारणों का जिक्र किया।ख़ैर,आसपास के कुछ दूसरे लोगों की तुलना में अच्छी हिंदी बोलने और समझनेवाला, मोहन एक सेवा तत्पर कर्मी लगा। कहने लगा, 'अंदर की दूकानों में लोग पचास रुपए ले रहे हैं।मैं तो फिर भी चालीस रुपए ही ले रहा हूँ।'वह अपने हिसाब से शेविंग जैसे कम समय लेनेवाले कार्य को तन्मयतापूर्कक संपन्न करने लगा।

 
विमान संख्या 6 ई 315 के माध्यम से चेन्नई को प्रस्थान।

 
थिरूअनंतपुरम से चेन्नई की यात्रा एक घंटे की है।इस टिकट को लेकर काफी दिक्कतें आईं क्योंकि टिकट की ई प्रति मुझे मेल नहीं हो पाई थी।समस्या का समय रहते समाधान हो पाया।

 
आज चेन्न्नई में ठहरना होगा।

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इसके पूर्व भी चेन्नई आना हुआ है, मगर परिवार सहित पहली बार। धूप खिली हुई है और मौसम में गर्मी है। दोपहर के 1.20 बजे हैं और सड़क पर कई जगह जाम का सामना करना पड़ रहा है। मैट्रो निर्माण कार्य का सड़क पर घेरा एक जैसा दिखता है, चाहे फिर वह दिल्ली हो या जयपुर,कोच्ची हो या चेन्नई। कार्य समाप्ति के बाद, निकली हुई जगह और बढ़ी हुई सुंदरता भी कमोबेश एक सी अनुभूति देती है। अलग अलग सांस्कृतिक और भाषिक पृष्ठभूमि के शहरों में कुछ चीजें एक सी होती हैं। यह नगरीय विकास का अपना 'मोनोटाइप' है।

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शाम के 5.20 हुए हैं।चेन्नई के डॉ. आर.के. सलाई रोड से होते हुए मरीना बीच जाना हो रहा है।क्वीन मैरी कॉलेज, मरीना तट के ठीक सामने स्थित चेन्नई का एक पुराना कॉलेज है।इधर तट पर तरह तरह के पेटी कारोबारी अपने दैनंदिन के कारोबार में लगे हुए हैं। नीले निक्कर और आधे बाजू की कमीज पहने एक अधेड़,नंगे पाँव शंख बजाता हुआ तट का चक्कर लगा रहा है। मंदिर के शंखनाद से इतर यह अपना पेट भरने और परिवार चलाने का उपक्रम है।पूजा पाठ से दूर यह गृहस्थी का अपना शंखनाद है।

 समुद्र के पीछे चेन्नई शहर एक बड़े अर्द्धचंद्राकार में फैला हुआ है,जिसके बीचों बीच पेड़ों की फुनगी तक नीचे आता हुआ सूरज, आज का अपना काम पूरा करनेवाला है।दो सुरक्षा कर्मी अपनी अपनी घोड़ियों पर सवार, तट पर मौज मस्ती करते पर्यटकों के उत्साह को सीमांकित करने के प्रयास में हैं और यही उनकी ड्यूटी है। वे पानी की लहरों के किनारे किनारे चल रहे हैं।

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सूरज डूब चूका है और सामने पेड़ों से छूते आकाश का एक कोना ललछौंह हो चुका है। पर्यटक अपने परिवार और दोस्तों सहित किनारे पर आती लहरों में समुद्र के शीतल स्पर्श का आनंद ले रहे हैं। पिछली बार याशिका के रील वाले कैमरे के साथ आना हुआ था। तब मोबाइल नहीं था और फेसबुक पर यूं डायरी नहीं लिख रहा था।

 

सामने समुद्र में कुछ दूरी पर तीन छोटी नावें उत्तर की दिशा में बढ़ती चली जा रही हैं। लहरों पर उछलती गिरती इन नावों में बैठे नाविकों को सलाम। मैं यहां किनारे पर खड़ा इन जल दस्युओं (उनके साहस को देखते हुए) को अपनी आँखों से ओझल होने तक निहारता रहता हूँ।समुद्र में काफी दूर तीन बड़े जहाज अपनी प्रकाश व्यवस्था से गरिमामय उपस्थिति का वहीं से एहसास करा रहे हैं। उनकी संख्या भी तीन है।

बच्चों को घोड़े पर बिठाते घुड़सवार स्वयं अभी बच्चे हैं, मगर घर की ज़रूरतों ने उन्हें असमय बड़ा बना दिया है। उनके चेहरे पर एक बाल सुलभ सरलता और श्रम जनित गौरव का द्विगुणित तेज विद्यमान है।

 पानी से भीगी रेत के फर्श पर चलना,सूखी रेत के भुरभुरेपन में चलने से कितना आसान है!रेत,अगर अपने साथ पानी को मिला ले तो कितनी शीतल और आरामदायक हो जाती है!आँखों में पानी और चेहरे पर नमक...मनुष्य ने इसे समुद्र से ही तो लिया है।

समुद्र, अपनी गहराई में जाने कितने रत्नों और खनिजों को छुपाए हुए है तो वहीं उसका तट लोगों को एक साथ कितनी चीजें देता है! दार्शनिकों को विचार,बच्चों को क्रीड़ा, गणिकाओं को ओट.... सब इसके किनारे मिलता है। कई लोग अपने साथ एक बड़ा चादर लाकर उसे सूखी रेत पर बिछाकर सपरिवार पिकनिक का मज़ा लेते हैं। मरीना का समुद्र तट, तब नई दिल्ली का इण्डिया गेट बन जाता है।

 
इस बीच पश्चिम की दिशा से कई विमान चेन्नई हवाई अड्डे की ओर जा चुके हैं। सड़क किनारे ऊंचे ऊंचे लगे हेड मास्ट की रोशनी में आकाश का चाँद कहीं धूमिल पड़ गया है,मगर उसे इसका कोई मलाल नहीं है। ईख के रस की दूकान के आगे ग्राहक हो या न हो,उसकी मशीन का पहिया निरंतर गतिमान है। छोटे छोटे बच्चों के निमित्त बने झूले अपनी चकमक रोशनी में नन्हें ग्राहकों को गोद में लिए व्यवसाय के साथ एक आनंद लोक का भी निर्माण कर रहे हैं। गुब्बारे और बांसुरी बेचते बच्चे, अपने हमउम्र ग्राहकों को लुभाते और उनकी ज़िद के आगे नतमस्तक होते उनके माता पिता से मोलभाव में व्यस्त हैं। अलग अलग वय के और परिधानों में आए प्रेमी युगलों को एक निगाह देखना नहीं भूलता हूँ।आप शायद सहमत हों,एक गृहस्थ में आवारगी के प्रति आकर्षण ज़िंदगी भर बचा रह जाता है।

 
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