Thursday, December 27, 2012






 


मेरे  द्वारा खींचा गए  चित्र इन पुस्तकों के आवरण पर हैं। कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें।

Friday, September 21, 2012

                                                           
     नदी
  
अर्पण कुमार


जटिल नहीं है
नदी की
चक्करदार,बिछलती देह
जटिल है
उसकी गोपन भाषा


मुश्किल नहीं है
नदी की केशराशि फैलाना
मुश्किल है
अपनी अधीर उँगलियों से
उसकी वेणी बनाना
धैर्यपूर्वक

पुरुषार्थ नहीं है
नदी को हासिल करना
पुरुषार्थ  है
नदी के साथ बहना
सँभालते हुए उसे
उबड़-खाबड़ पथ पर
होकर आत्मसंयत स्वयं भी

जरूरी नहीं है
नदी को चाँद कहना
जरूरी है
नदी में चाँद की तरह उतरना
गहरे,अनछुए,लिप्सारहित....
नहाते हुए
उसके जल को
अपनी रोशनी में

भ्रम नहीं है
नदी का दर्पण होना
भ्रम है 
उसमें बेमानी
अपना कोई प्रतिबिंब देखना
जिद में और बहुधा
झूठी शान में

दुष्कर नहीं है
नदी को समझना
दुष्कर है
उसे विश्वास में लेना
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Wednesday, September 19, 2012

'जानवरों को कविता की जरूरत नहीं होती।' रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रसिद्ध निबंध 'कविता क्या है?' का अंतिम खंड.....

कविता की आवश्यकता

मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय  वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में,किसी न किसी रूप में, पाई जाती है।  चाहे इतिहास न हो,विज्ञान न हो,दर्शन न हो,पर कविता  का प्रचार अवश्य  रहेगा।बात यह है कि मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मंडल बाँधता  चला आ रहा  है जिसके भीतर बँधा-बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का संबंध भूला-सा  रहता है। इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खोने का डर  बराबर रहता है। इसी से अंतःप्रकृति में मनुष्यता  को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली  आ रही है और चली रहेगी। जानवरों  को इसकी जरूरत नहीं।     

Tuesday, September 18, 2012

ज्ञान एक ताकत है
जिसके सहारे व्यक्ति
सदियों से चली आई अपनी गुलामी
या अपनी उस मानसिकता को
सर्वप्रथम समझ सकता है
और फिर उसका प्रतिरोध करने के लिए
खुद को सक्षम और हुनरमंद बना सकता है

ज्ञान एक स्वाभिमान है ब
जो व्यक्ति को शिखर की ओर
देखने और खुद शिखर बन जाने
का हौसला देता है
उन्हें भी जिन्हें अबतक
समाज,व्यवस्था और इतिहास ने
धरती पर ठीक से खड़ा भी नहीं होने दिया

ज्ञान एक पूँजी है
जिसे व्यक्ति ताउम्र कमाता है
और जिसके लूटे जाने का अंदेशा भी नहीं होता
बल्कि  जिसके अधिकाधिक संवितरण में
उसका ढेर बढ़ता चला जाता है

ज्ञान व्यक्ति को
उसके समय और परिवेश को
समझने में उसकी मदद करता है

ज्ञान व्यक्ति को हल्का कर देता है
रुई के फाहे की तरह
जिसके सहारे वह
अनंत अंतरिक्ष में
अकुंठित और अकलुषित भाव से
तैर सकता है
किसी बेफिक्र परिंदे की मानिंद

अगर हमें अपने जीवन को
भरपूर जीना हो
तो खुद को जितना हो सके
उतना भारहीन रखना होगा
तभी हम वक्त के अथाह समंदर में
बिना डूबे अपने हिस्से की तैराकी
पूरी कर सकते हैं
और अपने मंजिल को छूने के लिए
बिना किसी हील-हुज्जत के
डूबने-डुबाने के खेल में पड़े बगैर
हम आगे बढ़ सकते हैं
बिना हाँफे ,बिना थके
कुछेक  को अपने साथ किए,अपने साथ रखे
तब मंज़िल से अधिक रास्तों का मंज़र
हमें आनंद देता है
और मंजिल का प्राप्त होना
सहसा हमें पता भी नहीं चलता

असल यात्रा तो यही है
ज्ञान की, बोधि‌ज्ञान की
जो हमें हमारे भीतर ही पूरी करनी होती है
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Sunday, June 24, 2012

आज एक और रविवार

आज एक और रविवार ।24 जून 2012 की इस गरमी में कमरे में बंद रहने के अलावा और क्या किया जा सकता है! बस वही कर रहा हूँ।
अकेला हूँ, खाना बनाना भी तो मशक्कत का काम है। देखिए कब उठना होता है!
कुछ डिब्बाबंद जूस से अबतक काम चल रहा है।
सुबह कॉफी बनाई थी।उसके बाद कुछ जूस।...
फ्रीज में चावल रख रखा है ।सोचता हूँ, उसको फ्राई करके पापी पेट की आग बुझाई जाए।वैसे भी घड़ी की सुईयाँ ढाई से उपर दिखा रही हैं। .....
गरमी के मौसम में दिन में बाहर निकलकर कुछ खाना भी कितना  मुश्किल काम है!
वैसे भी जयपुर में आजकल जहाँ मेरा निवास है,खाने-पीने की सुविधा और विविधता कम ही है।
दिल्ली की याद रह-रह कर आती है,जहाँ होम-डिलीवरी की सुविधा कई बार बड़ी राहतकारी साबित होती है।
वहाँ स्थानीय स्तर पर चल रहे ढाबों/रेस्टोरेंट आदि में इस तरह की सुविधाएं उपलब्ध हैं।जनसंख्या का घना घनत्व और बाहर के खाने को लेकर बढ़ता फैशन इस तरह के कुटीर सेवा उद्योग  को एक बूम ही दे रहा है।सेवा-प्रदाता और उपभोक्ता दोनों खुश।
दिनभर घूमकर आए हों और थक गए हों तो बस एक फोन घुमा दीजिए।खाना हाजिर। थकावट हुई है मगर बिना कुछ खाए-पीए नींद भी कहाँ से आएगी!
मेहमानों की संख्या बढ़ गई है तो कुछ घर में बना लीजिए और कुछ बाहर से मँगवा लीजिए। इस तरह रसोई की साझा सरकार महानगरों में चलाई जा रही है।
जयपुर अभी विकसित होता एक शहर है।परंपरा और आधुनिकता का एक मिश्रित रूप।महानगरों की राह पर दौड़ते इस शहर के अपने रंग हैं।हो सकता है इससे असुविधा हो मगर आपको ही शहर के रंग में रंगना होगा।
आखिर हर शहर का अपना मिजाज  होता है। बेशक हमें वे रंग पसंद न हों या फिर वे धीरे-धीरे पसंद आए।शहर हमें अपनाने में देर करता है और हम शहर को अपनाने में। बस हिसाब बराबर।मगर हिसाब की यह बराबरी करते-करते हम कब एक-दूसरे की ओर आकर्षित होने लगते हैं,यह हमें पता भी नहीं चलता। 
बेशक जयपुर दिल्ली नहीं है।मगर उसे दिल्ली होने की ज़रूरत भी कहाँ है।
अगर मुझे दिल्ली का मुखर्जी नगर या फिर पटना का गाँधी मैदान याद आता है तो मुझे स्वयं  बीच-बीच में वहाँ जाना होगा। विविधता के इन्हीं रंगों के आकर्षण में देशाटन होगा,अपनी जन्म-स्थली और कर्म-स्थली की ओर भी हम अपना रुख करेंगे।तभी तो इस देश की डोर  को हम हर दिशा में लेकर सोत्साह दौड़ सकते हैं।
खैर अभी यहीं तक...। फिलहाल तो रसोई की ओर ही रुख करने की ज़रूरत है।
बात भोजन से शुरू हुई थी। अब भोजन की व्यवस्था के निमित्त फिलहाल बात यहीं समाप्त भी कर रहा हूँ।
  

   

Wednesday, March 7, 2012

होली के दिन अकेला

आज होलिका दहन किया गया।पारंपरिक तौर तरीके से।सोसाईटी में एक दर्शक की तरह मौजूद रहा। कितना आसान है एक दर्शक की तरह कहीं खड़ा होना और कितना मुश्किल है इसको स्वीकार कर पाना कि अपने आस-पास घट रही चीजों में हमारी भागीदारी कितनी घटती चली जा रही है। या हमारी राय या दखल को कितना सीमित किया जा रहा है।
सिर्फ देखने के लिए किसी अनुष्ठान में बुलाया जाना कहीं न कहीं हमारी प्रासंगिकता को भी घेरे में खड़ा करता है।
पौना घंटे तक होलिका दहन देखते हुए कई और ख्यालों के साथ यह भी ख्याल आता रहा।
होलिका-दहन में हमारे बीच पसरी चुप्पी और अजनबियत को भी जलाये जाने की ज़रूरत है। 

Sunday, February 19, 2012

रविवार और छुट्टी का दिन

रविवार का दिन मिला-जुला ही रहा।घर में  छोटे-मोटे काम करवाया। बच्चों से बातचीत हुई।खाना बाहर से ही मँगाया। क्या करूँ घर में रसोई गैस ही नहीं है।
छुट्टी के दिन किचन में कुछ काम करने से  समय ही कटता है। मगर आज यह भी न हो सका।
एक अधूरी कहानी को पूरा करनी की कोशिश की।मगर अभी उसमें कुछ और समय देने की दरकार है।
समय निकला तो रात में एकबार फिर बठूँगा।    

Thursday, February 16, 2012

हमारे पास क्या है जो हम तुम्हें दे

तुम्हारे इस सवाल का क्या उत्तर दूँ
कि मैं  आखिरी बार कब खुश हुआ
कि इस दुनिया में ऐसा क्या है
जिससे मैं सबसे अधिक भयभीत होता हूँ
तुम्हीं बताओ
क्या  इन सवालों का कोई उत्तर हो सकता है
...................
क्या कहूँ कि
दुःख और सुख जब भी आते हैं एक साथ आते हैं
इसे यूँ भी समझो
कि मैं दुःख और सुख को अलग करने में यकीन नहीं रखता   
ऐसे ही  सफलता  और असफलता  भी
परस्पर अलग नहीं किए जा सकते

जिन अपनों के लिए जितना  कुछ किया  बदले में उनसे सिर्फ ताने ही मिले
ऐसे में दुःखी मन के साथ हम अपना कर्म और धर्म तो नहीं त्याग सकते .....
क्योंकि हमारे बेहतर किए का कहीं-न-कहीं कुछ अच्छे फल तो ज़रूर मिलेंगे
मगर हम हैं तो आखिर इंसान ही  न

इतना तो स्वीकारना ही पड़ेगा मेरे दोस्त... 
किसी और के लिए कुछ करने का जज्बा
अगर कम भी नहीं हुआ
तो किसी के लिए कुछ करने के दौरान
अब पहले की तरह संलिप्तता भी नहीं रही
       

नींद को रोको

अगर मुझसे प्यार है
तो थामे रखो अपनी नींद को
मेरी बाँहों में
रात को बीतने दो इस तरह जागती आँखों में