Wednesday, July 25, 2018

हमारे शतदल के ग्यारहवें कवि हैं श्री अर्पण कुमार जी। 
इन्होने शतदल को अपनी उम्दा कविताओं से नवाज़ा है। इनकी सबसे बेहतरीन कविता अँधेरा, इंसान की दिन-ब-दिन बढ़ती महत्वाकांक्षाओं पर गहरा आक्षेप करती है।
महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है। बुरा है उसका स्वार्थ से गठबंधन। हम आगे बढ़ने के चाह में सही और गलत का फर्क ही भूल गए। और हमने चुन ली अपने ही विनाश की राह।
और गड़बड़ा दिया प्रकृति के संतुलन को। पढ़िये इनकी 'अँधेरा' कविता की ये शानदार
लाईनें....

"प्रकृति की विरासत से तुम्हे
दिन और रात बराबर मिले थे
सबको बराबर मिला था, प्रकाश और अन्धकार
दुनिया तब एक दिखती थी
मगर जब तुमने ढूंढें रौशनी के विकल्प
उसके कतरों में बंट गयी दुनिया
जिसके एक बड़े हिस्से में चला आया अन्धकार
जी कहीं अधिक अप्राकृतिक अन्यायपूर्ण
और भयावह है।
प्रकृति की तुला पर तुम सबका वज़न एक था
मगर उसकी डंडी जब तुमने
थामी
मालिक बना तो कोई नौकर
शोषित बना तो कोई शोषित
पूँजी पति बना तो कोई सर्वहारा"
सही कहा अर्पण जी आपने। हमने
अपनी महत्वाकांक्षाओं की खातिर प्रकृति
का संतुलन बिगाड़ कर रख दिया। तभी तो प्रकृति हमसे
शुब्ध है। जिसकी वजह से हमें रोज़ के भूकम्पों का
सामना करना पड़ रहा है।
इनकी इसी कविता का ये वाला हिस्सा मुझे
सबसे अच्छा लगा , आप भी पढ़िये-
" तुमने मनुष्यों की मंडियां लगाई
गुलामों की खरीद फ़रोख्त की
उन्हें पशुओं के पैरों में बांधकर
दौड़ प्रतियोगिता का मज़ा लिया
अपने विरोधी स्वरों को कतारबद्ध कर, निस्संग भाव से
'कांसनट्रेशन कैंप' के हवाले किया।
तो कभी उनके शहरों पर एटम बम गिराकर
उन्हें पल भर की रौशनी में ऐसा नहाया कि
आगे आने वाली उनकी कई नस्लें
रौशनी के भय से अपनी आँखे ना खोल
सकी।"
.

..... याद आया आपको वो दिल दहला देने वाला मंज़र, वो अमेरिका का  हिरोशिमा-नागासाकी पर अणुबम का हमला। उसके बाद तो जाने ऐसे कितने नागासाकी उजाड़े गए होंगे। एक आम इंसान कभी युद्ध नहीं चाहता। मगर युद्ध होता रहा । एक बेक़सूर आम आदमी को हमेशा हाशिये पर रखा जाता रहा। उससे वो कराया गया जो उसने कभी
नहीं चाहा। कभी डरा धमका कर कभी ललचा कर। हाशिया …………..अर्पण जी की एक और शानदार कविता.......

"मैं बतला सकता हूँ कहाँ क्या लिखते हुए वह रुका था
हिचका था
और जो कहने के लिए बैठा था उसे छोड़कर
मजबूरी में और ज़्यादातर स्वभाववश,
या फिर आकर प्रलोभन में तो कभी होकर भयाक्रांत
किसी सत्ताधीश से
या गिरफ्तार हो किसी मठ के शक्ति केंद्र के आकर्षण में
जाने क्या क्या अनाप शनाप लिखता रहा था "

आह कितनी आसानी से भर दी आपने अपनी बेचैनियां शब्दों में। ये बेचैन से शब्द जाने कहाँ कहाँ बिखर कर उथल पुथल मचाएंगे। और शायद यही उथल पुथल कारण बन जाए बदलाव का आपको पढ़कर मुझे दुष्यंत कुमार जी का वो शेर याद आ गया
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम
तू ना समझेगा सियासत , तू अभी इंसान है। …………।

इस हाशिया कविता का एक और अंतरा सुनिए। इसके माध्यम से अर्पण जी ने हाशिये की महत्ता बतायी है। या यूँ कहें एक आम आदमी की ताक़त की-
"लिखा हुआ गलत हो सकता है
बदला जा सकता है
कोई अमिट आलेख वक़्त के हाथों
कुछ भी अंतिम नहीं हैं
इस स्थापना की शुरुवात में आप मुझे ही
पाएंगे
हरदम हर जगह
तत्पर किसी बदलाव को जगह देने के लिए "

ऐसा लगा जैसे अर्पण जी ने कठोर दुनिया असली चेहरा दिखा डरा भी दिया और फिर दुलार के उम्मीदों को आँखों में रख भी दिया। सच बड़े प्यारे कवि हैं अर्पण जी। हम हमेशा कवि के दुःख को निजी और सामाजिक के आधार पर विभाजित करते हैं। यहाँ वो अपनी प्रेमिका माँ बेटी बहन  के लिए आंसू बहा रहा तो ये उसका निजी हुआ, और बाकी सामाजिक हुआ। लेकिन सच कहूँ तो मेरा ऐसा मानना है की दुःख का कारण भले कुछ भी रहा हो वो निजी ही हो जाता है। अपना ही जना ... सगा।  सच कहूँ तो ये ख्याल मुझे इनकी कविताओं को पढ़ कर ही आया।
 
ऐसा नहीं कि कवि का खाता एकदम नीरस या शुष्‍क विचारों से भरा है। सच तो यह है कि  बहुत भावुक हैं अर्पण जी। इनकी अगली कविता 'बुआ को सोचते हुए' एक बहुत ही आम सा ख्याल है। आज की ज़िन्दगी में जहां परिवार बंटते जा रहे है, वहीँ लोगों की सोच में भी संकीर्णता आती जा रही है। रिश्ते सिर्फ नाम मात्र के रह गए है। अपनत्व तभी तक कायम है जब तक रिश्ता घर की देहलीज़ के बाहर है। देहलीज़ के भीतर आते ही रिश्ता बोझ बन के रह जाता है। ये कविता अर्पण जी ने एक शिकायती लहजे में लिखी है। इसे शिकायत कहें या अपने अंतर्मन की कसमसाहट...  देखिये.... 

"जब उसका अपना बसा घर उजड़ा
उस अभागी, निरंकुश गृहस्थिन को
एक घर चाहिए था
और उसने 
तेरा घर चुना

माँ और हम सभी उकता जाते थे
जिससे 
कोख सूनी , एकाचारिणी की
वह स्वार्थ संकीर्णता
तुम्हारे हित में होती थी
अपना सबकुछ देकर भी वो तुम्हे रास ना आई 
पिता।
कभी कभी याद कर  लेना 
अपनी उस अवांछित लौह बहन को
जो तेरे लिए लड़ी
अंत अंत तक नि:स्वार्थ
दुत्कारे जाने के बावजूद।"

सच कितनी बेबस हो जाती है  एक मजलूम  बेसहारा औरत। सर से साया छिन जाने के बाद। अर्पण जी की हर कविता पाठक को खुद से जोड़ लेते है। हम कविता के साथ साथ बहते हैं। कविता ख़त्म हो जाती है मगर उसी दिशा में भटकते रहते हैं। इनकी अगली कविता "दिल्ली में जहानाबाद" एक बेमिसाल कविता है। जहानाबाद जिसका नाम सुनकर ही आत्मा काँप उठती है। उसी जहानाबाद के बारे में अर्पण जी कहते हैं की " मैं जहानाबाद के आतंक को लोगों के डाइनिंग टेबल से हटाना चाहता हूँ।"

मगर सच तो ये है अर्पण जी के लहू के इतने गहरे दाग आसानी से  नहीं छूटते। मुझे आपकी ये कविता आपका अपनी जन्मभूमि के लिये इतना प्यार बहुत अच्छा लगा। आपने सच कहा के किसी एक हिस्से में हुए हादसे से पूरा गाँव बुरा नहीं हो जाता। मगर फिर भी डरना एक इंसानी फितरत है,  और डर से उबरना भी। सच मुझे आपकी हर कविता बहुत अच्छी लगी। और सबसे अच्छा लगा आपका किसी माँ की तरह डराकर फिर से बहलाना , हिम्मत दिलाना उम्मीदे देना। या जैसे किसी गुरु की तरह , कबीर दास जी कहते हैना 
गुरु कुम्‍हार सिष कुम्‍भ है, गढ़ि गढ़ि काढे खोट
भीतर आप सहाय दे, तब बाहर दे चोट।  

(इस दोहे को लिखते ही मुझे माया मृग सर जी भी याद आगये ,
आज के कबीर हैं माया मृग जी। )

अर्पण जी आपकी कविताओं में बहुत अपनत्व है। आप यूँही लिखते रहे। आपको मेरी बहुत सारी शुभकामनाएं।

निवेद...