Wednesday, March 7, 2012

होली के दिन अकेला

आज होलिका दहन किया गया।पारंपरिक तौर तरीके से।सोसाईटी में एक दर्शक की तरह मौजूद रहा। कितना आसान है एक दर्शक की तरह कहीं खड़ा होना और कितना मुश्किल है इसको स्वीकार कर पाना कि अपने आस-पास घट रही चीजों में हमारी भागीदारी कितनी घटती चली जा रही है। या हमारी राय या दखल को कितना सीमित किया जा रहा है।
सिर्फ देखने के लिए किसी अनुष्ठान में बुलाया जाना कहीं न कहीं हमारी प्रासंगिकता को भी घेरे में खड़ा करता है।
पौना घंटे तक होलिका दहन देखते हुए कई और ख्यालों के साथ यह भी ख्याल आता रहा।
होलिका-दहन में हमारे बीच पसरी चुप्पी और अजनबियत को भी जलाये जाने की ज़रूरत है। 

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